आदमी की अनुपात / गिरिजाकुमार माथुर

दो व्‍यक्ति कमरे में कमरे से छोटे — कमरा है घर में घर है मुहल्‍ले में मुहल्‍ला नगर में नगर है प्रदेश में प्रदेश कई देश में देश कई पृथ्‍वी पर अनगिन नक्षत्रों में पृथ्‍वी एक छोटी करोड़ों में एक ही सबको समेटे हैं परिधि नभ गंगा की लाखों ब्रह्मांडों में अपना एक ब्रह्मांड हर… Continue reading आदमी की अनुपात / गिरिजाकुमार माथुर

मेरे सपने बहुत नहीं हैं / गिरिजाकुमार माथुर

मेरे सपने बहुत नहीं हैं — छोटी-सी अपनी दुनिया हो, दो उजले-उजले से कमरे जगने को-सोने को, मोती-सी हों चुनी किताबें शीतल जल से भरे सुनहले प्‍यालों जैसी ठण्‍डी खिड़की से बाहर धीरे हँसती हो तितली-सी रंगीन बगीची; छोटा लॉन स्‍वीट-पी जैसा, मौलसिरी की बिखरी छितरी छाँहों डूबा — हम हों, वे हों काव्‍य और… Continue reading मेरे सपने बहुत नहीं हैं / गिरिजाकुमार माथुर

इतिहास की कालहीन कसौटी / गिरिजाकुमार माथुर

बन्‍द अगर होगा मन आग बन जाएगा रोका हुआ हर शब्‍द चिराग बन जाएगा । सत्‍ता के मन में जब-जब पाप भर जाएगा झूठ और सच का सब अन्‍तर मिट जाएगा न्‍याय असहाय, ज़ोर-जब्र खिलखिलाएगा जब प्रचार ही लोक-मंगल कहलाएगा तब हर अपमान क्रान्ति-राग बन जाएगा बन्‍द अगर होगा मन आग बन जाएगा घर की… Continue reading इतिहास की कालहीन कसौटी / गिरिजाकुमार माथुर

भटका हुआ कारवाँ / गिरिजाकुमार माथुर

उन पर क्‍या विश्‍वास जिन्‍हें है अपने पर विश्‍वास नहीं वे क्‍या दिशा दिखाएँगे, दिखता जिनको आकाश नहीं बहुत बड़े सतरंगे नक़्शे पर बहुत बड़ी शतरंज बिछी धब्‍बोंवाली चादर जिसकी कटी, फटी, टेढ़ी, तिरछी जुटे हुए हैं वही खिलाड़ी चाल वही, संकल्‍प वही सबके वही पियादे, फर्जी कोई नया विकल्‍प नहीं चढ़ा खेल का नशा… Continue reading भटका हुआ कारवाँ / गिरिजाकुमार माथुर

भूले हुओं का गीत / गिरिजाकुमार माथुर

बरसों के बाद कभी हम तुम यदि मिलें कहीं देखें कुछ परिचित से लेकिन पहिचानें ना याद भी न आए नाम रूप रंग, काम, धाम सोचें यह संभव है पर, मन में मानें ना हो न याद, एक बार आया तूफ़ान, ज्‍वार बन्‍द मिटे पृष्‍ठों को पढ़ने की ठानें ना बातें जो साथ हुईं बातों… Continue reading भूले हुओं का गीत / गिरिजाकुमार माथुर

विदा समय क्‍यों भरे नयन हैं / गिरिजाकुमार माथुर

विदा समय क्‍यों भरे नयन हैं अब न उदास करो मुख अपना बार-बार फिर कब है मिलना जिस सपने को सच समझा था — वह सब आज हो रहा सपना याद भुलाना होंगी सारी भूले-भटके याद न करना चलते समय उमड़ आए इन पलकों में जलते सावन हैं। कैसे पी कर खाली होगी सदा भरी… Continue reading विदा समय क्‍यों भरे नयन हैं / गिरिजाकुमार माथुर

कौन थकान हरे / गिरिजाकुमार माथुर

कौन थकान हरे जीवन की । बीत गया संगीत प्‍यार का, रूठ गई कविता भी मन की । वंशी में अब नींद भरी है, स्‍वर पर पीत साँझ उतरी है बुझती जाती गूँज आखरी — इस उदास वन-पथ के ऊपर पतझर की छाया गहरी है, अब सपनों में शेष रह गईं, सुधियाँ उस चंदन के… Continue reading कौन थकान हरे / गिरिजाकुमार माथुर

पन्‍द्रह अगस्‍त / गिरिजाकुमार माथुर

आज जीत की रात पहरुए सावधान रहना ! खुले देश के द्वार अचल दीपक समान रहना ! प्रथम चरण है नए स्‍वर्ग का है मंज़िल का छोर इस जन-मन्‍थन से उठ आई पहली रत्‍न हिलोर अभी शेष है पूरी होना जीवन मुक्‍ता डोर क्‍योंकि नहीं मिट पाई दुख की विगत साँवली कोर ले युग की… Continue reading पन्‍द्रह अगस्‍त / गिरिजाकुमार माथुर

चाँदनी की रात है / गिरिजाकुमार माथुर

चाँदनी की रात है तो क्‍या करूँ ज़िन्‍दगी में चाँदनी कैसे भरूँ दूर है छिटकी छबीली चाँदनी बहुत पहली देह-पीली चाँदनी चौक थे पूरे छुई के : चाँदनी दीप ये ठण्‍डे रुई के : चाँदनी पड़ रही आँगन तिरछी चाँदनी गन्‍ध चौके भरे मैले वसन गृहिणी चाँदनी याद यह मीठी कहाँ कैसे धरूँ असलियत में… Continue reading चाँदनी की रात है / गिरिजाकुमार माथुर

मैं कैसे आनन्‍द मनाऊँ / गिरिजाकुमार माथुर

मैं कैसे आनन्‍द मनाऊँ तुमने कहा हँसूँ रोने में रोते-रोते गीत सुनाऊँ झुलस गया सुख मन ही मन में लपट उठी जीवन-जीवन में नया प्‍यार बलिदान हो गया पर प्‍यासी आत्‍मा मँडराती प्रीति सन्‍ध्‍या के समय गगन में अपने ही मरने पर बोलो कैसे घी के दीप जलाऊँ गरम भस्‍म माथे पर लिपटी कैसे उसको… Continue reading मैं कैसे आनन्‍द मनाऊँ / गिरिजाकुमार माथुर