अनकही बात / गिरिजाकुमार माथुर

बोलते में मुस्‍कराहट की कनी रह गई गड़ कर नहीं निकली अनी खेल से पल्‍ला जो उँगली पर कसा मन लिपट कर रह गया छूटा वहीं बहुत पूछा पर नहीं उत्‍तर मिला हैं लजीले मौन बातें अनगिनी अर्थ हैं जितने न उतने शब्‍द हैं बहुत मीठी है कहानी अनसुनी ठीक कर लो अलग माथे पर… Continue reading अनकही बात / गिरिजाकुमार माथुर

ख़ुशबू बहुत है / गिरिजाकुमार माथुर

मेरे युवा-आम में नया बौर आया है ख़ुशबू बहुत है क्‍योंकि तुमने लगाया है आएगी फूल-हवा अलबेली मानिनी छाएगी कसी-कसी अँबियों की चाँदनी चमकीले, मँजे अंग चेहरा हँसता मयंक खनकदार स्‍वर में तेज गमक-ताल फागुनी मेरा जिस्‍म फिर से नया रूप धर आया है ताज़गी बहुत है क्‍योंकि तुमने सजाया है अन्‍धी थी दुनिया या… Continue reading ख़ुशबू बहुत है / गिरिजाकुमार माथुर

नया बनने का दर्द / गिरिजाकुमार माथुर

पुराना मकान फिर पुराना ही होता है -उखड़ा हो पलस्तर खार लगी चनखारियाँ टूटी महरावें घुन लगे दरवाजे सील भरे फर्श, झरोखे, अलमारियाँ -कितनी ही मरम्मत करो चेपे लगाओ रंग-रोगन करवाओ चमक नहीं आती है रूप न सँवरता है नींव वही रहती है कुछ भी न बदलता है -लेकिन जब आएँ नई दुनिया की चुनौतियाँ… Continue reading नया बनने का दर्द / गिरिजाकुमार माथुर

भीगा दिन / गिरिजाकुमार माथुर

भीगा दिन पश्चिमी तटों में उतर चुका है, बादल-ढकी रात आती है धूल-भरी दीपक की लौ पर मंद पग धर। गीली राहें धीरे-धीरे सूनी होतीं जिन पर बोझल पहियों के लंबे निशान है माथे पर की सोच-भरी रेखाओं जैसे। पानी-रँगी दिवालों पर सूने राही की छाया पड़ती पैरों के धीमे स्वर मर जाते हैं अनजानी… Continue reading भीगा दिन / गिरिजाकुमार माथुर

पन्द्रह अगस्त / गिरिजाकुमार माथुर

१ आज जीत की रात पहरुए! सावधान रहना खुले देश के द्वार अचल दीपक समान रहना २ प्रथम चरण है नए स्वर्ग का है मंज़िल का छोर इस जनमंथन से उठ आई पहली रत्न-हिलोर अभी शेष है पूरी होना जीवन-मुक्ता-डोर क्योंकि नहीं मिट पाई दुख की विगत साँवली कोर ले युग की पतवार बने अम्बुधि… Continue reading पन्द्रह अगस्त / गिरिजाकुमार माथुर

नया कवि / गिरिजाकुमार माथुर

जो अंधेरी रात में भभके अचानक चमक से चकचौंध भर दे मैं निरंतर पास आता अग्निध्वज हूँ कड़कड़ाएँ रीढ़ बूढ़ी रूढ़ियों की झुर्रियाँ काँपें घुनी अनुभूतियों की उसी नई आवाज़ की उठती गरज हूँ। जब उलझ जाएँ मनस गाँठें घनेरी बोध की हो जाएँ सब गलियाँ अंधेरी तर्क और विवेक पर बेसूझ जाले मढ़ चुके… Continue reading नया कवि / गिरिजाकुमार माथुर

चूड़ी का टुकड़ा / गिरिजाकुमार माथुर

आज अचानक सूनी-सी संध्या में जब मैं यों ही मैले कपड़े देख रहा था किसी काम में जी बहलाने एक सिल्क के कुर्ते की सिलवट में लिपटा गिरा रेशमी चूड़ी का छोटा-सा टुकड़ा उन गोरी कलाइयों में जो तुम पहने थीं रंग भरी उस मिलन रात में। मैं वैसा का वैसा ही रह गया सोचता… Continue reading चूड़ी का टुकड़ा / गिरिजाकुमार माथुर

आज हैं केसर रंग रंगे वन / गिरिजाकुमार माथुर

आज हैं केसर रंग रंगे वन रंजित शाम भी फागुन की खिली खिली पीली कली-सी केसर के वसनों में छिपा तन सोने की छाँह-सा बोलती आँखों में पहले वसन्त के फूल का रंग है। गोरे कपोलों पे हौले से आ जाती पहले ही पहले के रंगीन चुंबन की सी ललाई। आज हैं केसर रंग रंगे… Continue reading आज हैं केसर रंग रंगे वन / गिरिजाकुमार माथुर

दो पाटों की दुनिया / गिरिजाकुमार माथुर

दो पाटों की दुनिया चारों तरफ शोर है, चारों तरफ भरा-पूरा है, चारों तरफ मुर्दनी है, भीड और कूडा है। हर सुविधा एक ठप्पेदार अजनबी उगाती है, हर व्यस्तता और अधिक अकेला कर जाती है। हम क्या करें- भीड और अकेलेपन के क्रम से कैसे छूटें? राहें सभी अंधी हैं, ज्यादातर लोग पागल हैं, अपने… Continue reading दो पाटों की दुनिया / गिरिजाकुमार माथुर

ढाकबनी / गिरिजाकुमार माथुर

लाल पत्थर लाल मिटृटी लाल कंकड़ लाल बजरी लाल फूले ढाक के वन डाँग गाती फाग कजरी सनसनाती साँझ सूनी वायु का कंठला खनकता झींगुरों की खंजड़ी पर झाँझ-सा बीहड़ झनकता कंटकित बेरी करौंदे महकते हैं झाब झोरे सुन्न हैं सागौन वन के कान जैसे पात चौड़े ढूह, टीेले, टोरियों पर धूप-सूखी घास भूरी हाड़… Continue reading ढाकबनी / गिरिजाकुमार माथुर