अंधेरे में / भाग 3 / गजानन माधव मुक्तिबोध

समझ न पाया कि चल रहा स्वप्न या जाग्रति शुरू है। दिया जल रहा है, पीतालोक-प्रसार में काल चल रहा है, आस-पास फैली हुई जग-आकृतियाँ लगती हैं छपी हुई जड़ चित्रकृतियों-सी अलग व दूर-दूर निर्जीव!! यह सिविल लाइन्स है। मैं अपने कमरे में यहाँ पड़ा हुआ हूँ आँखें खुली हुई हैं, पीटे गये बालक-सा मार… Continue reading अंधेरे में / भाग 3 / गजानन माधव मुक्तिबोध

अंधेरे में / भाग 2 / गजानन माधव मुक्तिबोध

सूनापन सिहरा, अँधेरे में ध्वनियों के बुलबुले उभरे, शून्य के मुख पर सलवटें स्वर की, मेरे ही उर पर, धँसाती हुई सिर, छटपटा रही हैं शब्दों की लहरें मीठी है दुःसह!! अरे, हाँ, साँकल ही रह -रह बजती है द्वार पर। कोई मेरी बात मुझे बताने के लिए ही बुलाता है — बुलाता है हृदय… Continue reading अंधेरे में / भाग 2 / गजानन माधव मुक्तिबोध

अंधेरे में / भाग 1 / गजानन माधव मुक्तिबोध

ज़िन्दगी के… कमरों में अँधेरे लगाता है चक्कर कोई एक लगातार; आवाज़ पैरों की देती है सुनाई बार-बार….बार-बार, वह नहीं दीखता… नहीं ही दीखता, किन्तु वह रहा घूम तिलस्मी खोह में ग़िरफ्तार कोई एक, भीत-पार आती हुई पास से, गहन रहस्यमय अन्धकार ध्वनि-सा अस्तित्व जनाता अनिवार कोई एक, और मेरे हृदय की धक्-धक् पूछती है–वह… Continue reading अंधेरे में / भाग 1 / गजानन माधव मुक्तिबोध

एक स्वप्न कथा / भाग 7 / गजानन माधव मुक्तिबोध

7 स्तब्ध हूँ विचित्र दृश्य फुसफुसे पहाड़ों-सी पुरुषों की आकृतियाँ भुसभुसे टीलों-सी नारी प्रकृतियाँ ऊँचा उठाये सिर गरबीली चाल से सरकती जाती हैं चेहरों के चौखटे अलग-अलग तरह के– अजीब हैं मुश्किल है जानना; पर, कई निज के स्वयं के ही पहचानवालों का भान हो आता है। आसमान असीम, अछोरपन भूल, तंग गुम्बज, फिर, क्रमशः… Continue reading एक स्वप्न कथा / भाग 7 / गजानन माधव मुक्तिबोध

एक स्वप्न कथा / भाग 6 / गजानन माधव मुक्तिबोध

6 मुझे जेल देती हैं दुश्मन हैं स्फूर्तियाँ गुस्से में ढकेल ही देती हैं। भयानक समुन्दर के बीचोंबीच फेंक दिया जाता हूँ। अपना सब वर्तमान, भूत भविष्य स्वाहा कर पृथ्वी-रहित, नभ रहित होकर मैं वीरान जलती हुई अकेली धड़कन… सहसा पछाड़ खा चारों ओर फैले उस भयानक समुद्र की (काले संगमूसा-सी चिकनी व चमकदार) सतहों… Continue reading एक स्वप्न कथा / भाग 6 / गजानन माधव मुक्तिबोध

एक स्वप्न कथा / भाग 5 / गजानन माधव मुक्तिबोध

5 मेरे प्रति उन्मुख हो स्फूर्तियाँ कहती हैं – तुम क्या हो? पहचान न पायीं, सच! क्या कहना! तुम्हारी आत्मा का सौन्दर्य अनिर्वच, प्राण हैं प्रस्तर-त्वच। मारकर ठहाका, वे मुझे हिला देती हैं सोई हुई अग्नियाँ उँगली से हिला-डुला पुनः जिला देती हैं। मुझे वे दुनिया की किसी दवाई में डाल गला देती हैं!! उनके… Continue reading एक स्वप्न कथा / भाग 5 / गजानन माधव मुक्तिबोध

एक स्वप्न कथा / भाग 4 / गजानन माधव मुक्तिबोध

4 मुझसे जो छूट गये अपने वे स्फूर्ति-मुख निहारता बैठा हूँ, उनका आदेश क्या, क्या करूँ? रह-रहकर यह ख़याल आता है- ज्ञानी एक पूर्वज ने किसी रात, नदी का पानी काट, मन्त्र पढ़ते हुए, गहन जल-धारा में गोता लगाया था कि अन्धकार जल-तल का स्पर्श कर इधर ढूँढ, उधर खोज एक स्निग्ध, गोल-गोल मनोहर तेजस्वी… Continue reading एक स्वप्न कथा / भाग 4 / गजानन माधव मुक्तिबोध

एक स्वप्न कथा / भाग 3 / गजानन माधव मुक्तिबोध

3 जाने क्यों, काँप-सिहरते हुए, एक भयद अपवित्रता की हद ढूँढ़ने लगता हूँ कि इतने में एक अनहद गान निनादित सर्वतः झूलता रहता है, ऊँचा उठ, नीचे गिर पुनः क्षीण, पुनः तीव्र इस कोने, उस कोने, दूर-दूर चारों ओर गूँजता रहता है। आर-पार सागर के श्यामल प्रसारों पर अपार्थिव पक्षिणियाँ अनवरत गाती हैं– चीख़ती रहती… Continue reading एक स्वप्न कथा / भाग 3 / गजानन माधव मुक्तिबोध

एक स्वप्न कथा / भाग 2 / गजानन माधव मुक्तिबोध

2 सागर तट पथरीला किसी अन्य ग्रह-तल के विलक्षण स्थानों को अपार्थिव आकृति-सा इस मिनिट, उस सेकेण्ड चमचमा उठता है, जब-जब वे स्फूर्ति-मुख मुझे देख तमतमा उठते हैं काली उन लहरों को पकड़कर अँजलि में जब-जब मैं देखना चाहता हूँ– क्या हैं वे? कहाँ से आयी हैं? किस तरह निकली हैं उद्गम क्या, स्रोत क्या,… Continue reading एक स्वप्न कथा / भाग 2 / गजानन माधव मुक्तिबोध

एक स्वप्न कथा / भाग 1 / गजानन माधव मुक्तिबोध

1 एक विजय और एक पराजय के बीच मेरी शुद्ध प्रकृति मेरा ‘स्व’ जगमगाता रहता है विचित्र उथल-पुथल में। मेरी साँझ, मेरी रात सुबहें व मेरे दिन नहाते हैं, नहाते ही रहते हैं सियाह समुन्दर के अथाह पानी में उठते-गिरते हुए दिगवकाश-जल में। विक्षोभित हिल्लोलित लहरों में मेरा मन नहाता रहता है साँवले पल में।… Continue reading एक स्वप्न कथा / भाग 1 / गजानन माधव मुक्तिबोध