दिमाग़ी गुहान्धकार का ओरांग उटांग / गजानन माधव मुक्तिबोध

स्वप्न के भीतर स्वप्न, विचारधारा के भीतर और एक अन्य सघन विचारधारा प्रच्छन!! कथ्य के भीतर एक अनुरोधी विरुद्ध विपरीत, नेपथ्य संगीत!! मस्तिष्क के भीतर एक मस्तिष्क उसके भी अन्दर एक और कक्ष कक्ष के भीतर एक गुप्त प्रकोष्ठ और कोठे के साँवले गुहान्धकार में मजबूत…सन्दूक़ दृढ़, भारी-भरकम और उस सन्दूक़ भीतर कोई बन्द है… Continue reading दिमाग़ी गुहान्धकार का ओरांग उटांग / गजानन माधव मुक्तिबोध

मुझे कदम-कदम पर / गजानन माधव मुक्तिबोध

मुझे कदम-कदम पर चौराहे मिलते हैं बांहें फैलाए! एक पैर रखता हूँ कि सौ राहें फूटतीं, मैं उन सब पर से गुजरना चाहता हूँ, बहुत अच्छे लगते हैं उनके तजुर्बे और अपने सपने…. सब सच्चे लगते हैं, अजीब-सी अकुलाहट दिल में उभरती है, मैं कुछ गहरे में उतरना चाहता हूँ, जाने क्या मिल जाए! मुझे… Continue reading मुझे कदम-कदम पर / गजानन माधव मुक्तिबोध

लकड़ी का रावण / गजानन माधव मुक्तिबोध

दीखता त्रिकोण इस पर्वत-शिखर से अनाम, अरूप और अनाकार असीम एक कुहरा, भस्मीला अन्धकार फैला है कटे-पिटे पहाड़ी प्रसारों पर; लटकती हैं मटमैली ऊँची-ऊँची लहरें मैदानों पर सभी ओर लेकिन उस कुहरे से बहुत दूर ऊपर उठ पर्वतीय ऊर्ध्वमुखी नोक एक मुक्त और समुत्तुंग !! उस शैल-शिखर पर खड़ा हुआ दीखता है एक द्योः पिता… Continue reading लकड़ी का रावण / गजानन माधव मुक्तिबोध

बहुत दिनों से / गजानन माधव मुक्तिबोध

मैं बहुत दिनों से बहुत दिनों से बहुत-बहुत सी बातें तुमसे चाह रहा था कहना और कि साथ यों साथ-साथ फिर बहना बहना बहना मेघों की आवाज़ों से कुहरे की भाषाओं से रंगों के उद्भासों से ज्यों नभ का कोना-कोना है बोल रहा धरती से जी खोल रहा धरती से त्यों चाह रहा कहना उपमा… Continue reading बहुत दिनों से / गजानन माधव मुक्तिबोध

मैं उनका ही होता / गजानन माधव मुक्तिबोध

मैं उनका ही होता जिनसे मैंने रूप भाव पाए हैं। वे मेरे ही हिये बंधे हैं जो मर्यादाएँ लाए हैं। मेरे शब्द, भाव उनके हैं मेरे पैर और पथ मेरा, मेरा अंत और अथ मेरा, ऐसे किंतु चाव उनके हैं। मैं ऊँचा होता चलता हूँ उनके ओछेपन से गिर-गिर, उनके छिछलेपन से खुद-खुद, मैं गहरा… Continue reading मैं उनका ही होता / गजानन माधव मुक्तिबोध

पूंजीवादी समाज के प्रति / गजानन माधव मुक्तिबोध

इतने प्राण, इतने हाथ, इनती बुद्धि इतना ज्ञान, संस्कृति और अंतःशुद्धि इतना दिव्य, इतना भव्य, इतनी शक्ति यह सौंदर्य, वह वैचित्र्य, ईश्वर-भक्ति इतना काव्य, इतने शब्द, इतने छंद – जितना ढोंग, जितना भोग है निर्बंध इतना गूढ़, इतना गाढ़, सुंदर-जाल – केवल एक जलता सत्य देने टाल। छोड़ो हाय, केवल घृणा औ’ दुर्गंध तेरी रेशमी… Continue reading पूंजीवादी समाज के प्रति / गजानन माधव मुक्तिबोध

बेचैन चील / गजानन माधव मुक्तिबोध

बेचैन चील!! उस जैसा मैं पर्यटनशील प्यासा-प्यासा, देखता रहूँगा एक दमकती हुई झील या पानी का कोरा झाँसा जिसकी सफ़ेद चिलचिलाहटों में है अजीब इनकार एक सूना!!

रात, चलते हैं अकेले ही सितारे / गजानन माधव मुक्तिबोध

रात, चलते हैं अकेले ही सितारे। एक निर्जन रिक्त नाले के पास मैंने एक स्थल को खोद मिट्टी के हरे ढेले निकाले दूर खोदा और खोदा और दोनों हाथ चलते जा रहे थे शक्ति से भरपूर। सुनाई दे रहे थे स्वर – बड़े अपस्वर घृणित रात्रिचरों के क्रूर। काले-से सुरों में बोलता, सुनसान था मैदान।… Continue reading रात, चलते हैं अकेले ही सितारे / गजानन माधव मुक्तिबोध

विचार आते हैं / गजानन माधव मुक्तिबोध

विचार आते हैं लिखते समय नहीं बोझ ढोते वक़्त पीठ पर सिर पर उठाते समय भार परिश्रम करते समय चांद उगता है व पानी में झलमलाने लगता है हृदय के पानी में विचार आते हैं लिखते समय नहीं …पत्थर ढोते वक़्त पीठ पर उठाते वक़्त बोझ साँप मारते समय पिछवाड़े बच्चों की नेकर फचीटते वक़्त… Continue reading विचार आते हैं / गजानन माधव मुक्तिबोध

चाहिए मुझे मेरा असंग बबूल पन / गजानन माधव मुक्तिबोध

मुझे नहीं मालूम मेरी प्रतिक्रियाएँ सही हैं या ग़लत हैं या और कुछ सच, हूँ मात्र मैं निवेदन-सौन्दर्य सुबह से शाम तक मन में ही आड़ी-टेढ़ी लकीरों से करता हूँ अपनी ही काटपीट ग़लत के ख़िलाफ़ नित सही की तलाश में कि इतना उलझ जाता हूँ कि जहर नहीं लिखने की स्याही में पीता हूँ… Continue reading चाहिए मुझे मेरा असंग बबूल पन / गजानन माधव मुक्तिबोध