कहने दो उन्हें जो यह कहते हैं / भाग 1 / गजानन माधव मुक्तिबोध

कहने दो उन्हें जो यह कहते हैं – ‘सफल जीवन बिताने में हुए असमर्थ तुम! तरक़्क़ी के गोल-गोल घुमावदार चक्करदार ऊपर बढ़ते हुए ज़ीने पर चढ़ने की चढ़ते ही जाने की उन्नति के बारे में तुम्हारी ही ज़हरीली उपेक्षा के कारण, निरर्थक तुम, व्यर्थ तुम!!’ कटी-कमर भीतों के पास खड़े ढेरों और ढूहों में खड़े… Continue reading कहने दो उन्हें जो यह कहते हैं / भाग 1 / गजानन माधव मुक्तिबोध

एक अंतर्कथा / भाग 4 / गजानन माधव मुक्तिबोध

वह कौन? कि सहसा प्रश्न कौंधता अंतर में – ‘वह है मानव परंपरा’ चिंघाड़ता हुआ उत्तर यह, ‘सुन, कालिदास का कुमारसंभव वह।’ मेरी आँखों में अश्रु और अभिमान किसी कारण अंतर के भीतर पिघलती हुई हिमालयी चट्टान किसी कारण; तब एक क्षण भर मेरे कंधों पर खड़ा हुआ है देव एक दुर्धर थामता नभस दो… Continue reading एक अंतर्कथा / भाग 4 / गजानन माधव मुक्तिबोध

एक अंतर्कथा / भाग 3 / गजानन माधव मुक्तिबोध

सपने से जागकर पाता हूँ सामने वही बरगद के तने-सरीखी वह अत्यंत कठिन दृढ़ पीठ अग्रगायी माँ की युग-युग अनुभव का नेतृत्व आगे-आगे, मैं अनुगत हूँ। वह एक गिरस्तन आत्मा मेरी माँ मैं चिल्लाकर पूछता – कि यह सब क्या कि कौन सी माया यह। मुड़कर के मेरी ओर सहज मुसका वह कहती है –… Continue reading एक अंतर्कथा / भाग 3 / गजानन माधव मुक्तिबोध

एक अंतर्कथा / भाग 2 / गजानन माधव मुक्तिबोध

आगे-आगे माँ पीछे मैं; उसकी दृढ़ पीठ ज़रा सी झुक चुन लेती डंठल पल भर रुक वह जीर्ण-नील-वस्त्रा है अस्थि-दृढ़ा गतिमती व्यक्तिमत्ता कर रहा अध्ययन मैं उसकी मज़बूती का उसके जीवन से लगे हुए वर्षा-गर्मी-सर्दी और क्षुधा-तृषा के वर्षों से मैं पूछ रहा – टोकरी-विवर में पक्षी-स्वर कलरव क्यों है माँ कहती – ‘सूखी टहनी… Continue reading एक अंतर्कथा / भाग 2 / गजानन माधव मुक्तिबोध

एक अंतर्कथा / भाग 1 / गजानन माधव मुक्तिबोध

अग्नि के काष्ठ खोजती माँ, बीनती नित्य सूखे डंठल सूखी टहनी, रुखी डालें घूमती सभ्यता के जंगल वह मेरी माँ खोजती अग्नि के अधिष्ठान मुझमें दुविधा, पर, माँ की आज्ञा से समिधा एकत्र कर रहा हूँ मैं हर टहनी में डंठल में एक-एक स्वप्न देखता हुआ पहचान रहा प्रत्येक जतन से जमा रहा टोकरी उठा,… Continue reading एक अंतर्कथा / भाग 1 / गजानन माधव मुक्तिबोध

अंधेरे में / भाग 8 / गजानन माधव मुक्तिबोध

एकाएक हृदय धड़ककर रुक गया, क्या हुआ !! नगर से भयानक धुआँ उठ रहा है, कहीं आग लग गयी, कहीं गोली चल गयी। सड़कों पर मरा हुआ फैला है सुनसान, हवाओं में अदृश्य ज्वाला की गरमी गरमी का आवेग। साथ-साथ घूमते हैं, साथ-साथ रहते हैं, साथ-साथ सोते हैं, खाते हैं, पीते हैं, जन-मन उद्देश्य !!… Continue reading अंधेरे में / भाग 8 / गजानन माधव मुक्तिबोध

सहर्ष स्वीकारा है / गजानन माधव मुक्तिबोध

ज़िन्दगी में जो कुछ है, जो भी है सहर्ष स्वीकारा है; इसलिए कि जो कुछ भी मेरा है वह तुम्हें प्यारा है। गरबीली ग़रीबी यह, ये गंभीर अनुभव सब यह विचार-वैभव सब दृढ़्ता यह, भीतर की सरिता यह अभिनव सब मौलिक है, मौलिक है इसलिए के पल-पल में जो कुछ भी जाग्रत है अपलक है–… Continue reading सहर्ष स्वीकारा है / गजानन माधव मुक्तिबोध

अंधेरे में / भाग 6 / गजानन माधव मुक्तिबोध

सीन बदलता है सुनसान चौराहा साँवला फैला, बीच में वीरान गेरूआ घण्टाघर, ऊपर कत्थई बुज़र्ग गुम्बद, साँवली हवाओं में काल टहलता है। रात में पीले हैं चार घड़ी-चेहरे, मिनिट के काँटों की चार अलग गतियाँ, चार अलग कोण, कि चार अलग संकेत (मनस् में गतिमान् चार अलग मतियाँ) खम्भों पर बिजली की गरदनें लटकीं, शर्म… Continue reading अंधेरे में / भाग 6 / गजानन माधव मुक्तिबोध

अंधेरे में / भाग 5 / गजानन माधव मुक्तिबोध

एकाएक मुझे भान !! पीछे से किसी अजनबी ने कन्धे पर रक्खा हाथ। चौंकता मैं भयानक एकाएक थरथर रेंग गयी सिर तक, नहीं नहीं। ऊपर से गिरकर कन्धे पर बैठ गया बरगद-पात तक, क्या वह संकेत, क्या वह इशारा? क्या वह चिट्ठी है किसी की? कौन-सा इंगित? भागता मैं दम छोड़, घूम गया कई मोड़!!… Continue reading अंधेरे में / भाग 5 / गजानन माधव मुक्तिबोध

अंधेरे में / भाग 4 / गजानन माधव मुक्तिबोध

अकस्मात् चार का ग़जर कहीं खड़का मेरा दिल धड़का, उदास मटमैला मनरूपी वल्मीक चल-विचल हुआ सहसा। अनगिनत काली-काली हायफ़न-डैशों की लीकें बाहर निकल पड़ीं, अन्दर घुस पड़ीं भयभीत, सब ओर बिखराव। मैं अपने कमरे में यहाँ लेटा हुआ हूँ। काले-काले शहतीर छत के हृदय दबोचते। यद्यपि आँगन में नल जो मारता, जल खखारता। किन्तु न… Continue reading अंधेरे में / भाग 4 / गजानन माधव मुक्तिबोध