इस रास्ते के नाम लिखो एक शाम और / दुष्यंत कुमार

इस रास्ते के नाम लिखो एक शाम और या इसमें रौशनी का करो इन्तज़ाम और आँधी में सिर्फ़ हम ही उखड़ कर नहीं गिरे हमसे जुड़ा हुआ था कोई एक नाम और मरघट में भीड़ है या मज़ारों में भीड़ है अब गुल खिला रहा है तुम्हारा निज़ाम और घुटनों पे रख के हाथ खड़े… Continue reading इस रास्ते के नाम लिखो एक शाम और / दुष्यंत कुमार

चांदनी छत पे चल रही होगी / दुष्यंत कुमार

चांदनी छत पे चल रही होगी अब अकेली टहल रही होगी फिर मेरा ज़िक्र आ गया होगा बर्फ़-सी वो पिघल रही होगी कल का सपना बहुत सुहाना था ये उदासी न कल रही होगी सोचता हूँ कि बंद कमरे में एक शमअ-सी जल रही होगी तेरे गहनों सी खनखनाती थी बाजरे की फ़सल रही होगी… Continue reading चांदनी छत पे चल रही होगी / दुष्यंत कुमार

मत कहो, आकाश में कुहरा घना है / दुष्यंत कुमार

मत कहो, आकाश में कुहरा घना है, यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना है । सूर्य हमने भी नहीं देखा सुबह से, क्या करोगे, सूर्य का क्या देखना है । इस सड़क पर इस क़दर कीचड़ बिछी है, हर किसी का पाँव घुटनों तक सना है । पक्ष औ’ प्रतिपक्ष संसद में मुखर हैं, बात इतनी… Continue reading मत कहो, आकाश में कुहरा घना है / दुष्यंत कुमार

पुराने पड़ गये डर, फेंक दो तुम भी / दुष्यंत कुमार

पुराने पड़ गये डर, फेंक दो तुम भी ये कचरा आज बाहर फेंक दो तुम भी लपट आने लगी है अब हवाओं में ओसारे और छप्पर फेंक दो तुम भी यहाँ मासूम सपने जी नहीं पाते इन्हें कुंकुम लगा कर फेंक दो तुम भी तुम्हें भी इस बहाने याद कर लेंगे इधर दो—चार पत्थर फेंक… Continue reading पुराने पड़ गये डर, फेंक दो तुम भी / दुष्यंत कुमार

मरना लगा रहेगा यहाँ जी तो लीजिए / दुष्यंत कुमार

मरना लगा रहेगा यहाँ जी तो लीजिए ऐसा भी क्या परहेज़, ज़रा—सी तो लीजिए अब रिन्द बच रहे हैं ज़रा तेज़ रक़्स हो महफ़िल से उठ लिए हैं नमाज़ी तो लीजिए पत्तों से चाहते हो बजें साज़ की तरह पेड़ों से पहले आप उदासी तो लीजिए ख़ामोश रह के तुमने हमारे सवाल पर कर दी… Continue reading मरना लगा रहेगा यहाँ जी तो लीजिए / दुष्यंत कुमार

आज सड़कों पर लिखे हैं सैंकड़ों नारे न देख / दुष्यंत कुमार

आज सड़कों पर लिखे हैं सैंकड़ों नारे न देख घर अँधेरा देख तू आकाश के तारे न देख एक दरिया है यहाँ पर दूर तक फैला हुआ आज अपने बाजुओं को देख पतवारें न देख अब यक़ीनन ठोस है धरती हक़ीक़त की तरह यह हक़ीक़त देख, लेकिन ख़ौफ़ के मारे न देख वे सहारे भी… Continue reading आज सड़कों पर लिखे हैं सैंकड़ों नारे न देख / दुष्यंत कुमार

कहीं पे धूप / दुष्यंत कुमार

कहीं पे धूप की चादर बिछा के बैठ गए कहीं पे शाम सिरहाने लगा के बैठ गए । जले जो रेत में तलवे तो हमने ये देखा बहुत से लोग वहीं छटपटा के बैठ गए । खड़े हुए थे अलावों की आंच लेने को सब अपनी अपनी हथेली जला के बैठ गए । दुकानदार तो… Continue reading कहीं पे धूप / दुष्यंत कुमार

ये रौशनी है हक़ीक़त में एक छल, लोगो / दुष्यंत कुमार

ये रौशनी है हक़ीक़त में एक छल, लोगो कि जैसे जल में झलकता हुआ महल, लोगो दरख़्त हैं तो परिन्दे नज़र नहीं आते जो मुस्तहक़ हैं वही हक़ से बेदख़ल, लोगो वो घर में मेज़ पे कोहनी टिकाये बैठी है थमी हुई है वहीं उम्र आजकल ,लोगो किसी भी क़ौम की तारीख़ के उजाले में… Continue reading ये रौशनी है हक़ीक़त में एक छल, लोगो / दुष्यंत कुमार

भूख है तो सब्र कर / दुष्यंत कुमार

भूख है तो सब्र कर रोटी नहीं तो क्या हुआ आजकल दिल्ली में है ज़ेर-ए-बहस ये मुदद्आ । मौत ने तो धर दबोचा एक चीते कि तरह ज़िंदगी ने जब छुआ तो फ़ासला रखकर छुआ । गिड़गिड़ाने का यहां कोई असर होता नही पेट भरकर गालियां दो, आह भरकर बददुआ । क्या वज़ह है प्यास… Continue reading भूख है तो सब्र कर / दुष्यंत कुमार

अपाहिज व्यथा को वहन कर रहा हूँ / दुष्यंत कुमार

अपाहिज व्यथा को वहन कर रहा हूँ तुम्हारी कहन थी, कहन कर रहा हूँ ये दरवाज़ा खोलें तो खुलता नहीं है इसे तोड़ने का जतन कर रहा हूँ अँधेरे में कुछ ज़िन्दगी होम कर दी उजाले में अब ये हवन कर रहा हूँ वे संबंध अब तक बहस में टँगे हैं जिन्हें रात-दिन स्मरण कर… Continue reading अपाहिज व्यथा को वहन कर रहा हूँ / दुष्यंत कुमार