परिन्दे अब भी पर तोले हुए हैं / दुष्यंत कुमार

परिन्दे अब भी पर तोले हुए हैं हवा में सनसनी घोले हुए हैं तुम्हीं कमज़ोर पड़ते जा रहे हो तुम्हारे ख़्वाब तो शोले हुए हैं ग़ज़ब है सच को सच कहते नहीं वो क़ुरान—ओ—उपनिषद् खोले हुए हैं मज़ारों से दुआएँ माँगते हो अक़ीदे किस क़दर पोले हुए हैं हमारे हाथ तो काटे गए थे हमारे… Continue reading परिन्दे अब भी पर तोले हुए हैं / दुष्यंत कुमार

खँडहर बचे हुए हैं, इमारत नहीं रही / दुष्यंत कुमार

खँडहर बचे हुए हैं, इमारत नहीं रही अच्छा हुआ कि सर पे कोई छत नहीं रही कैसी मशालें ले के चले तीरगी में आप जो रोशनी थी वो भी सलामत नहीं रही हमने तमाम उम्र अकेले सफ़र किया हम पर किसी ख़ुदा की इनायत नहीं रही मेरे चमन में कोई नशेमन नहीं रहा या यूँ… Continue reading खँडहर बचे हुए हैं, इमारत नहीं रही / दुष्यंत कुमार

देख, दहलीज़ से काई नहीं जाने वाली / दुष्यंत कुमार

देख, दहलीज़ से काई नहीं जाने वाली ये ख़तरनाक सचाई नहीं जाने वाली कितना अच्छा है कि साँसों की हवा लगती है आग अब उनसे बुझाई नहीं जाने वाली एक तालाब-सी भर जाती है हर बारिश में मैं समझता हूँ ये खाई नहीं जाने वाली चीख़ निकली तो है होंठों से मगर मद्धम है बंद… Continue reading देख, दहलीज़ से काई नहीं जाने वाली / दुष्यंत कुमार

इस नदी की धार से ठंडी हवा आती तो है / दुष्यंत कुमार

इस नदी की धार से ठंडी हवा आती तो है नाव जर्जर ही सही, लहरों से टकराती तो है एक चिंगारी कहीं से ढूँढ लाओ दोस्तो इस दिये में तेल से भीगी हुई बाती तो है एक खँडहर के हृदय-सी,एक जंगली फूल-सी आदमी की पीर गूँगी ही सही, गाती तो है एक चादर साँझ ने… Continue reading इस नदी की धार से ठंडी हवा आती तो है / दुष्यंत कुमार

ये सारा जिस्म झुक कर बोझ से दुहरा हुआ होगा / दुष्यंत कुमार

ये सारा जिस्म झुक कर बोझ से दुहरा हुआ होगा[1] मैं सजदे में नहीं था आपको धोखा हुआ होगा यहाँ तक आते-आते सूख जाती हैं कई नदियाँ मुझे मालूम है पानी कहाँ ठहरा हुआ होगा ग़ज़ब ये है कि अपनी मौत की आहट नहीं सुनते वो सब के सब परीशाँ हैं वहाँ पर क्या हुआ… Continue reading ये सारा जिस्म झुक कर बोझ से दुहरा हुआ होगा / दुष्यंत कुमार

कैसे मंज़र सामने आने लगे हैं / दुष्यंत कुमार

कैसे मंज़र सामने आने लगे हैं गाते-गाते लोग चिल्लाने लगे हैं अब तो इस तालाब का पानी बदल दो ये कँवल के फूल कुम्हलाने लगे हैं वो सलीबों के क़रीब आए तो हमको क़ायदे-क़ानून समझाने लगे हैं एक क़ब्रिस्तान में घर मिल रहा है जिसमें तहख़ानों में तहख़ाने लगे हैं मछलियों में खलबली है अब… Continue reading कैसे मंज़र सामने आने लगे हैं / दुष्यंत कुमार

कहाँ तो तय था चिराग़ाँ हर एक घर के लिए / दुष्यंत कुमार

कहाँ तो तय था चिराग़ाँ हर एक घर के लिए कहाँ चिराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिए यहाँ दरख़तों के साये में धूप लगती है चलो यहाँ से चलें और उम्र भर के लिए न हो कमीज़ तो पाँओं से पेट ढँक लेंगे ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफ़र के लिए ख़ुदा नहीं न… Continue reading कहाँ तो तय था चिराग़ाँ हर एक घर के लिए / दुष्यंत कुमार

भूमिका / साये में धूप / दुष्यंत कुमार

मैं स्वीकार करता हूँ… —कि ग़ज़लों को भूमिका की ज़रूरत नहीं होनी चाहिए; लेकिन,एक कैफ़ियत इनकी भाषा के बारे में ज़रूरी है. कुछ उर्दू—दाँ दोस्तों ने कुछ उर्दू शब्दों के प्रयोग पर एतराज़ किया है .उनका कहना है कि शब्द ‘शहर’ नहीं ‘शह्र’ होता है, ’वज़न’ नहीं ‘वज़्न’ होता है. —कि मैं उर्दू नहीं जानता,… Continue reading भूमिका / साये में धूप / दुष्यंत कुमार

आवाज़ों के घेरे (कविता) / दुष्यन्त कुमार

आवाज़ें… स्थूल रूप धरकर जो गलियों, सड़कों में मँडलाती हैं, क़ीमती कपड़ों के जिस्मों से टकराती हैं, मोटरों के आगे बिछ जाती हैं, दूकानों को देखती ललचाती हैं, प्रश्न चिह्न बनकर अनायास आगे आ जाती हैं- आवाज़ें ! आवाज़ें, आवाज़ें !! मित्रों ! मेरे व्यक्तित्व और मुझ-जैसे अनगिन व्यक्तित्वों का क्या मतलब ? मैं जो… Continue reading आवाज़ों के घेरे (कविता) / दुष्यन्त कुमार

कौन-सा पथ / दुष्यन्त कुमार

तुम्हारे आभार की लिपि में प्रकाशित हर डगर के प्रश्न हैं मेरे लिए पठनीय कौन-सा पथ कठिन है…? मुझको बताओ मैं चलूँगा। कौन-सा सुनसान तुमको कोचता है कहो, बढ़कर उसे पी लूँ या अधर पर शंख-सा रख फूँक दूँ तुम्हारे विश्वास का जय-घोष मेरे साहसिक स्वर में मुखर है। तुम्हारा चुम्बन अभी भी जल रहा… Continue reading कौन-सा पथ / दुष्यन्त कुमार