मित्रता और पवित्रता / भवानीप्रसाद मिश्र

आडम्बर में समाप्त न होने पाए पवित्रता और समाप्त न होने पाए मित्रता शिष्टाचार में सम्भावना है इतना-भर अवधान-पूर्वक प्राण-पूर्वक सहेजना है मित्रता और पवित्रता को !

आत्म अनात्म / भवानीप्रसाद मिश्र

समझ में आ जाना कुछ नहीं है भीतर समझ लेने के बाद एक बेचैनी होनी चाहिए कि समझ कितना जोड़ रही है हमें दूसरों से वह दूसरा फूल कहो कविता कहो पेड़ कहो फल कहो असल कहो बीज कहो आख़िरकार आदमी है !

घर और वन और मन / भवानीप्रसाद मिश्र

हवा मेरे घर का चक्कर लगाकर अभी वन में चली जाएगी भेजेगी मन तक बाँस के वन में गुँजाकर बाँसुरी की आवाज़ एक हो जाएँगे इस तरह घर और वन और मन हवा का आना हवा का जाना गूँजना बंसी का स्वर !

सावधान / भवानीप्रसाद मिश्र

जहाँ-जहाँ उपस्थित हो तुम वहाँ-वहाँ बंजर कुछ नहीं रहना चाहिए निराशा का कोई अंकुर फूटे जिससे तुम्हें ऐसा कुछ नहीं कहना चाहिए !

समझो भी / भवानीप्रसाद मिश्र

कई बार लगता है अकेला पड़ गया हूँ साथी-संगी विहीन क्या हाने हनूँगा तुम्हारे मन के लायक़ मैं कैसे बनूँगा शक्ति तुमने दी है मगर साथी तो चाहिए आदमी को आदमी की इस कमी को समझो उसके मन की इस नमी को समझो जो सार्थक नहीं होती बिन साथियों के !

भले आदमी / भवानीप्रसाद मिश्र

भले आदमी रुक रहने का पल अभी नहीं आया बीज जिस फल के लिए तूने बोया था वह फल अभी नहीं आया तेरे वृक्ष में टूटती हुई साँस की डोर को अभी जितना लंबा खींच सके खींच सींच चुका है तू वृक्ष को अपने पसीने से अब अपने ख़ून से सींच !

अंदाज़ / भवानीप्रसाद मिश्र

अंदाज़ लग जाता है कि घिरने वाले हैं बादल फटने वाला है आसमान ख़त्म हो जाने वाला है अस्तित्व सूर्य का इसी तरह सुनाई पड़ जाता है स्वर परिवर्तन के तूर्य का कि छँटने वाले हैं बादल साफ़ हो जाने वाला है फिर आसमान और गान फिर गूँजने वाले हैं पंछियों के और हमारे !

स्वप्न-शेष / भवानीप्रसाद मिश्र

सपनों का क्या करो कहाँ तक मरो इनके पीछे कहाँ-कहाँ तक खिंचो इनके खींचे कई बार लगता है लो यह आ गया हाथ में आँख खोलता हूँ तो बदल जाता है दिन रात में !