Bhawani Prasad Mishra Archive
हर बदल रहा आकार मेरी अंजुलि में आना चाहिए विराट हुआ करे कोई उसे मेरी इच्छा में समाना चाहिए !
आडम्बर में समाप्त न होने पाए पवित्रता और समाप्त न होने पाए मित्रता शिष्टाचार में सम्भावना है इतना-भर अवधान-पूर्वक प्राण-पूर्वक सहेजना है मित्रता और पवित्रता को !
समझ में आ जाना कुछ नहीं है भीतर समझ लेने के बाद एक बेचैनी होनी चाहिए कि समझ कितना जोड़ रही है हमें दूसरों से वह दूसरा फूल कहो कविता कहो पेड़ कहो फल कहो असल कहो बीज कहो आख़िरकार …
हवा मेरे घर का चक्कर लगाकर अभी वन में चली जाएगी भेजेगी मन तक बाँस के वन में गुँजाकर बाँसुरी की आवाज़ एक हो जाएँगे इस तरह घर और वन और मन हवा का आना हवा का जाना गूँजना बंसी …
जहाँ-जहाँ उपस्थित हो तुम वहाँ-वहाँ बंजर कुछ नहीं रहना चाहिए निराशा का कोई अंकुर फूटे जिससे तुम्हें ऐसा कुछ नहीं कहना चाहिए !
कई बार लगता है अकेला पड़ गया हूँ साथी-संगी विहीन क्या हाने हनूँगा तुम्हारे मन के लायक़ मैं कैसे बनूँगा शक्ति तुमने दी है मगर साथी तो चाहिए आदमी को आदमी की इस कमी को समझो उसके मन की इस …
भले आदमी रुक रहने का पल अभी नहीं आया बीज जिस फल के लिए तूने बोया था वह फल अभी नहीं आया तेरे वृक्ष में टूटती हुई साँस की डोर को अभी जितना लंबा खींच सके खींच सींच चुका है …
अंदाज़ लग जाता है कि घिरने वाले हैं बादल फटने वाला है आसमान ख़त्म हो जाने वाला है अस्तित्व सूर्य का इसी तरह सुनाई पड़ जाता है स्वर परिवर्तन के तूर्य का कि छँटने वाले हैं बादल साफ़ हो जाने …
सपनों का क्या करो कहाँ तक मरो इनके पीछे कहाँ-कहाँ तक खिंचो इनके खींचे कई बार लगता है लो यह आ गया हाथ में आँख खोलता हूँ तो बदल जाता है दिन रात में !
होने को सिर्फ़ दो हैं हम मगर कम नहीं होते दो जब चारों तरफ़ कोई और न हो !