बहुत छोटी जगह / भवानीप्रसाद मिश्र

बहुत छोटी जगह है घर जिसमें इन दिनों इजाज़त है मुझे चलने फिरने की फिर भी बड़ी गुंजाइश है इसमें तूफानों के घिरने की कभी बच्चे लड़ पड़ते हैं कभी खड़क उठते हैं गुस्से से उठाये-धरे जाने वाले बर्तन घर में रहने वाले सात जनों के मन लगातार सात मिनिट भी निश्चिंत नहीं रहते कुछ-न-कुछ… Continue reading बहुत छोटी जगह / भवानीप्रसाद मिश्र

मुझे अफ़सोस है / भवानीप्रसाद मिश्र

मुझे अफ़सोस है या कहिए मुझे वह है जिसे मैं अफ़सोस मानता रहा हूँ क्योंकि ज़्यादातर लोगों को ऐसे में नहीं होता वह जिसे मैं अफ़सोस मानता रहा हूँ मेरा मन आज शाम को शहर के बाहर जाकर और बैठकर किसी निर्जन टीले पर देर तक शाम होना देखते रहने का था कारण-वश और क्या… Continue reading मुझे अफ़सोस है / भवानीप्रसाद मिश्र

तुम भीतर / भवानीप्रसाद मिश्र

तुम भीतर जो साधे हो और समेटे हों कविता नहीं बनेगी वह क्योंकि कविता तो बाहर है तुम्हारे अपने भीतर को बाहर से जोड़ोगे नहीं बाहर जिस-जिस तरफ़ जहाँ -जहाँ जा रहा है अपने भीतर को उस-उस तरफ़ वहाँ -वहां मोड़ोगे नहीं और पहचान नहीं होने दोगे अब तक के इन दो-दो अनजानों की तो… Continue reading तुम भीतर / भवानीप्रसाद मिश्र

अपमान / भवानीप्रसाद मिश्र

अपमान का इतना असर मत होने दो अपने ऊपर सदा ही और सबके आगे कौन सम्मानित रहा है भू पर मन से ज्यादा तुम्हें कोई और नहीं जानता उसी से पूछकर जानते रहो उचित-अनुचित क्या-कुछ हो जाता है तुमसे हाथ का काम छोड़कर बैठ मत जाओ ऐसे गुम-सुम से !

कुछ सूखे फूलों के / भवानीप्रसाद मिश्र

कुछ सूखे फूलों के गुलदस्तों की तरह बासी शब्दों के बस्तों को फेंक नहीं पा रहा हूँ मैं गुलदस्ते जो सम्हालकर रख लिये हैं उनसे यादें जुड़ी हैं शब्दों में भी बसी हैं यादें बिना खोले इन बस्तों को बरसों से धरे हूँ फेंकता नहीं हूँ ना देता हूँ किसी शोधकर्ता को बासे हो गये… Continue reading कुछ सूखे फूलों के / भवानीप्रसाद मिश्र

सुनाई पड़ते हैं / भवानीप्रसाद मिश्र

सुनाई पड़ते हैं सुनाई पड़ते हैं कभी कभी उनके स्वर जो नहीं रहे दादाजी और बाई और गिरिजा और सरस और नीता और प्रायः सुनता हूँ जो स्वर वे शिकायात के होते हैं की बेटा या भैया या मन्ना ऐसी-कुछ उम्मीद की थी तुमसे चुपचाप सुनता हूँ और ग़लतियाँ याद आती हैं दादाजी को अपने… Continue reading सुनाई पड़ते हैं / भवानीप्रसाद मिश्र

पूरे एक वर्ष / भवानीप्रसाद मिश्र

सो जाओ आशाओं सो जाओ संघर्ष पूरे एक वर्ष अगले पूरे वर्षभर मैं शून्य रहूँगा न प्रकृति से जूझूँगा न आदमी से देखूँगा क्या मिलता है प्राण को हर्ष की शोक की इस कमी से इनके प्राचुर्य से तो ज्वर मिले हैं जब-जब फूल खिले हैं या जब-जब उतरा है फसलों पर तुषार तो जो… Continue reading पूरे एक वर्ष / भवानीप्रसाद मिश्र

मैंने पूछा / भवानीप्रसाद मिश्र

मैंने पूछा तुम क्यों आ गई वह हँसी और बोली तुम्हें कुरूप से बचाने के लिए कुरूप है ज़रुरत से ज़्यादा धूप मैं छाया हूँ ज़रूरत से ज़्यादा धूप कुरूप है ना?

कहीं नहीं बचे / भवानीप्रसाद मिश्र

कहीं नहीं बचे हरे वृक्ष न ठीक सागर बचे हैं न ठीक नदियाँ पहाड़ उदास हैं और झरने लगभग चुप आँखों में घिरता है अँधेरा घुप दिन दहाड़े यों जैसे बदल गई हो तलघर में दुनिया कहीं नहीं बचे ठीक हरे वृक्ष कहीं नहीं बचा ठीक चमकता सूरज चांदनी उछालता चांद स्निग्धता बखेरते तारे काहे… Continue reading कहीं नहीं बचे / भवानीप्रसाद मिश्र

व्यक्तिगत (कविता) / भवानीप्रसाद मिश्र

मैं कुछ दिनों से एक विचित्र सम्पन्नता में पड़ा हूँ संसार का सब कुछ जो बड़ा है और सुन्दर है व्यक्तिगत रूप से मेरा हो गया है सुबह सूरज आता है तो मित्र की तरह मुझे दस्तक देकर जगाता है और मैं उठकर घूमता हूँ उसके साथ लगभग डालकर हाथ में हाथ हरे मैदानों भरे… Continue reading व्यक्तिगत (कविता) / भवानीप्रसाद मिश्र