हर गली कूचे में रोने की सदा मेरी है / फ़रहत एहसास

हर गली कूचे में रोने की सदा मेरी है शहर में जो भी हुआ है वो ख़ता मेरी है ये जो है ख़ाक का इक ढेर बदन है मेरा वो जो उड़ती हुई फिरती है क़बा मेरी है वो जो इक शोर सा बरपा है अमल है मेरा ये जो तनहाई बरसती है सज़ा है… Continue reading हर गली कूचे में रोने की सदा मेरी है / फ़रहत एहसास

अब दिल की तरफ दर्द की यलगार बहुत है / फ़रहत एहसास

अब दिल की तरफ दर्द की यलगार बहुत है दुनिया मेरे जख़्मों की तलबगार बहुत है अब टूट रहा है मेरी हस्ती का तसव्वुर इस वक़्त मुझे तुझ से सरोकार बहुत है मिट्टी की ये दीवार कहीं टूट न जाए रोको के मेरे ख़ून की रफ़्तार बहुत है हर साँस उखड़ जाने की कोशिश में… Continue reading अब दिल की तरफ दर्द की यलगार बहुत है / फ़रहत एहसास

गौर से देखो तो हर चेहरे की बेनूरी का राज / फ़रहत एहसास

गौर से देखो तो हर चेहरे की बेनूरी का राज बादशाह-ए-वक़्त के चेहरे की ताबानी में है ! चाँद भी हैरान दरिया भी परेशानी में है अक्स किसका है कि इतनी रौशनी पानी में है !

Life

Animula, vagula, blandula. Life! I know not what thou art,    But know that thou and I must part;    And when, or how, or where we met,    I own to me’s a secret yet.    But this I know, when thou art fled,    Where’er they lay these limbs, this head,    No clod so valueless shall be,    As… Continue reading Life

The Forsaken Merman

Come, dear children, let us away; Down and away below! Now my brothers call from the bay, Now the great winds shoreward blow, Now the salt tides seaward flow; Now the wild white horses play, Champ and chafe and toss in the spray. Children dear, let us away! This way, this way!   Call her… Continue reading The Forsaken Merman

कनुप्रिया (सृष्टि-संकल्प – आदिम भय)

अगर यह निखिल सृष्टि मेरा ही लीलातन है तुम्हारे आस्वादन के लिए- अगर ये उत्तुंग हिमशिखर मेरे ही – रुपहली ढलान वाले गोरे कंधे हैं – जिन पर तुम्हारा गगन-सा चौड़ा और साँवला और तेजस्वी माथा टिकता है अगर यह चाँदनी में हिलोरें लेता हुआ महासागर मेरे ही निरावृत जिस्म का उतार-चढ़ाव है अगर ये… Continue reading कनुप्रिया (सृष्टि-संकल्प – आदिम भय)

कनुप्रिया (सृष्टि-संकल्प – केलिसखी)

आज की रात हर दिशा में अभिसार के संकेत क्यों हैं? हवा के हर झोंके का स्पर्श सारे तन को झनझना क्यों जाता है? और यह क्यों लगता है कि यदि और कोई नहीं तो यह दिगन्त-व्यापी अँधेरा ही मेरे शिथिल अधखुले गुलाब-तन को पी जाने के लिए तत्पर है और ऐसा क्यों भान होने… Continue reading कनुप्रिया (सृष्टि-संकल्प – केलिसखी)

कनुप्रिया (इतिहास – विप्रलब्धा)

बुझी हुई राख, टूटे हुए गीत, बुझे हुए चाँद, रीते हुए पात्र, बीते हुए क्षण-सा – – मेरा यह जिस्म कल तक जो जादू था, सूरज था, वेग था तुम्हारे आश्लेष में आज वह जूड़े से गिरे हुए बेले-सा टूटा है, म्लान है दुगुना सुनसान है बीते हुए उत्सव-सा, उठे हुए मेले-सा- मेरा यह जिस्म… Continue reading कनुप्रिया (इतिहास – विप्रलब्धा)

कनुप्रिया (इतिहास – सेतु : मैं)

नीचे की घाटी से ऊपर के शिखरों पर जिस को जाना था वह चला गया – हाय मुझी पर पग रख मेरी बाँहों से इतिहास तुम्हें ले गया! सुनो कनु, सुनो क्या मैं सिर्फ एक सेतु थी तुम्हारे लिए लीलाभूमि और युद्धक्षेत्र के अलंघ्य अन्तराल में! अब इन सूने शिखरों, मृत्यु-घाटियों में बने सोने के… Continue reading कनुप्रिया (इतिहास – सेतु : मैं)

कनुप्रिया (इतिहास: उसी आम के नीचे)

उस तन्मयता में तुम्हारे वक्ष में मुँह छिपाकर लजाते हुए मैंने जो-जो कहा था पता नहीं उसमें कुछ अर्थ था भी या नहीं: आम्र-मंजरियों से भरी माँग के दर्प में मैंने समस्त जगत् को अपनी बेसुधी के एक क्षण में लीन करने का जो दावा किया था – पता नहीं वह सच था भी या… Continue reading कनुप्रिया (इतिहास: उसी आम के नीचे)