यह मोजज़ा भी मुहब्बत कभी दिखाए मुझे / क़तील

यह [ithoughts_tooltip_glossary-tooltip content=”प्रतिबन्ध”]मोजज़ा[/ithoughts_tooltip_glossary-tooltip] भी मुहब्बत कभी दिखाए मुझे
कि संग तुझ पे गिरे और ज़ख़्म आए मुझे

मैं अपने पाँव तले रौंदता हूँ साये को
बदन मेरा ही सही दोपहर न भाए मुझे

[ithoughts_tooltip_glossary-tooltip content=”अगरबती की तरह”]ब-रंग-ए-ऊद[/ithoughts_tooltip_glossary-tooltip] मिलेगी उसे मेरी ख़ुश्बू
वो जब भी चाहे बड़े शौक़ से जलाए मुझे

मैं घर से तेरी तमन्ना पहन के जब निकलूँ
[ithoughts_tooltip_glossary-tooltip content=”नंगा, ख़ाली”]बरह्ना[/ithoughts_tooltip_glossary-tooltip] शहर में कोई नज़र न आए मुझे

वही तो सब से ज़्यादा है नुक्ताचीं मेरा
जो मुस्कुरा के हमेशा गले लगाए मुझे

मैं अपने दिल से निकालूँ ख़्याल किस-किस का
जो तू नहीं तो कोई और याद आए मुझे

ज़माना दर्द के सहरा तक आज ले आया
गुज़ार कर तेरी ज़ुल्फ़ों के साए -साए मुझे

वो मेरा दोस्त है सारे जहाँ को है मालूम
दग़ा करे वो किसी से तो शर्म आए मुझे

वो मेहरबाँ है तो इक़रार क्यों नहीं करता
वो बदगुमाँ है तो सौ बार आज़माए मुझे

मैं अपनी ज़ात में नीलाम हो रहा हूँ ‘क़तील’
ग़म-ए-हयात से कह दो ख़रीद लाए मुझे

Leave a comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *