मरता भला है ज़ब्त की ताक़त अगर न हो / हकीम अजमल ख़ाँ शैदा

मरता भला है ज़ब्त की ताक़त अगर न हो
कितना ही दर्द-ए-दिल हो मगर चश्म-ए-तर न हो

वो सर ही क्या कि जिस में तुम्हारा न हो ख़याल
वो दिल ही क्या जिस में तुम्हारा गुज़र न हो

ऐसी तो बे-असर नहीं बेताबी-ए-फ़िराक़
नाले करूँ मैं और किसी को ख़बर न हो

मिल जाओ तुम तो शब को बढ़ा लेंगे ता-अबद
माँगेंगे ये दुआ कि इलाही सहर न हो

ज़ुल्फ़ उन की अपने रूख़ पे परेशाँ करेंगे हम
डर है शब-ए-विसाल कहीं मुख़्तसर न हो

मैं हूँ वो तुफ़्ता-दिल की हुआ आफ़्ताब पर
मेरा गुमाँ कि आह का मेरी शरर न हो

‘शैदा’ को तेरे ख़ौफ़ किसी का नहीं यहाँ
सारा जहाँ हो उस का अदू तो मगर न हो

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