गुदाज़-ए-दिल से परवाना हुआ ख़ाक / हकीम अजमल ख़ाँ शैदा

गुदाज़-ए-दिल से परवाना हुआ ख़ाक
जिया बे-सोज़ में तो क्या जिया ख़ाक

किसी के ख़ून-ए-नाहक़ की है सुर्ख़ी
रंगेंगी दस्त-ए-क़ातिल को हिना ख़ाक

निगह में शर्म के बदले है शोख़ी
खुले फिर रात का क्या माजरा ख़ाक

लबों तक आ नहीं सकता तो फिर मैं
कहूँ क्या अपने दिल का मुद्दआ ख़ाक

बुलंदी से है उस की डर कि इक रोज़
करेगी आशियाँ बर्क़-ए-बला ख़ाक

न देखा जिन का चेहरा गर्द-आलूद
पड़ी है उन पे अब बे-इंतिहा ख़ाक

बयाबाँ में फिरा करते हैं ‘शैदा’
हक़ीक़त में है उल्फ़त की दवा ख़ाक

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