बेवफ़ाई का सिला भी जो वफ़ा देते हैं / सतीश शुक्ला ‘रक़ीब’

बेवफ़ाई का सिला भी जो वफ़ा देते हैं
अपनी फ़ितरत का ज़माने को पता देते हैं

आप बाहोश रहें सोच-समझ कर बोलें
तल्ख़ जुमले भी यहां आग लगा देते हैं

आह मजलूम की मुंसिफ़ को न जीने देगी
गर वो नाक़र्दा गुनाहों की सज़ा देते हैं

देर से जाऊँगा दफ़्तर तो कटेगी तनख़्वाह
वो इसी डर से मुझे रोज़ जगा देते हैं

यूँ इशारों से मुझे पास बुलाते क्यों हो
लोग तो तिल का यहाँ ताड़ बना देते हैं

ज़ह्नो-दिल ज़ब्त से खाली हैं यक़ीनन उनके
“कर के अहसान किसी पर जो जता देते हैं”

याद आती है बहुत पास न हों बच्चे तो
घर में आते ही जो कोहराम मचा देते हैं

उनके किरदार का सानी ही नहीं दुनिया में
जब भी बिगड़ी है कोई बात, बना देते हैं

हक़ में बीमार के करते हैं दुआएं भी तबीब
कुछ ‘रक़ीब’ ऐसे हैं जो सिर्फ़ दवा देते हैं

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