एक मासूम मुहब्बत पे मचा है घमसान / सतीश बेदाग़

एक मासूम मुहब्बत पे मचा है घमासान
दूर तक देख समन्दर में उठा है तूफ़ान

एक लड़की थी सिखाती थी जो खिलकर हँसना
आज याद आई है, तो हो आई है सीली मुस्कान

एक वो मेला, वो झूला, वो मिरे संग तस्वीर
क्या पता ख़ुश भी कहीं है, कि नहीं वो नादान

फिर से बचपन हो, तिरा शहर हो और छुट्टियाँ हों
काश मैं फिर रहूँ, कुछ रोज़ तिरे घर मेहमान

एक मुंडेर पे, इक गाँव में इक नाम लिखा है
रोज़ उस में से ही खुलता है ये नीला आसमान

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