चिन्ता / आकांक्षा पारे

किसी भी आने-जाने वाले के हाथ
माँ भेजती रहती है कुछ न कुछ
आज भी घर से आई हैं ढेर सौगात

प्यार में पगे शकरपारे
लाड़ की झिड़की जैसी नमकीन मठरियाँ
भेज दी हैं कुछ किताबें भी
जो छूट गई थीं पिछली दफ़ा

काग़ज़ के छोटे टुकड़े पर
पिता ने लिख भेजी हैं कुछ नसीहतें
जल्दबाज़ी में जो बताना भूल गए थे वे
लिख दिया है उन्होंने
बड़े शहर में रहने का सलीका

शब्दों के बीच
करीने से छुपाई गई चिंता भी
उभर आई है बार-बार।

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