ख़्वाहिश-ए-ऐश नहीं दर्द-ए-निहानी की क़सम / अख़्तर अंसारी

ख़्वाहिश-ए-ऐश नहीं दर्द-ए-निहानी की क़सम
बुल-हवस खाया करें इशरत-ए-फ़ानी की क़सम

इक ग़म-अंगेज़ हक़ीक़त है हमारी हस्ती
क़िस्सा-ख़्वाँ तेरी ग़म-अंगेज़ कहानी की क़सम

दिल की गहराइयों में आग दबी रखता हूँ
चश्म-ए-गिर्यां से बरसते हुए पानी की क़सम

जब से आई है ख़ुदा रक्खे जवानी ‘अख़्तर’
हम हर इक बात पर खाते हैं जावानी की क़सम

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