कोई सूरत निकलती क्यों नहीं है / ‘ज़फ़र’ इक़बाल

कोई सूरत निकलती क्यों नहीं है
यहाँ हालत बदलती क्यों नहीं है

ये बुझता क्यों नहीं है उनका सूरज
हमारी शमअ जलती क्यों नहीं है

अगर हम झेल ही बैठे हैं इसको
तो फिर ये रात ढलती क्यों नहीं है

मुहब्बत सर को चढ़ जाती है, अक्सर
मेरे दिल में मचलती क्यों नहीं है

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