आरज़ू को रूह में ग़म बन के रहना आ गया / अख़्तर अंसारी

आरज़ू को रूह में ग़म बन के रहना आ गया
सहते सहते हम को आख़िर रंज सहना आ गया

दिल का ख़ूँ आँखों में खिंच आया चलो अच्छा हुआ
मेरी आँखों को मेरा अहवाल कहना आ गया

सहल हो जाएगी मुश्किल ज़ब्त सोज़ ओ साज़ की
ख़ून-ए-दिल को आँख से जिस रोज़ बहना आ गया

मैं किसी से अपने दिल की बात कह सकता न था
अब सुख़न की आड़ में क्या कुछ न कहना आ गया

जब से मुँह को लग गई ‘अख्तर’ मोहब्बत की शराब
बे-पिए आठों पहर मद-होश रहना आ गया

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