ये आरजू थी तुझे गल के रू-ब-रू करते हम और बुलबुल-ए-बे-ताब गुफ़्तुगू करते पयाम्बर न मयस्सर हुआ तो खूब हुआ ज़बान-ए-ग़ैर से क्या शरह-ए-आरजू करते मिरी तरह से मह ओ मेहर भी हैं आवारा किसी हबीब की ये भी हैं जुस्तुजू करते हमेशा रंग-ए-ज़माना बदलता रहता है सफ़ेद रंग हैं आख़िर सियाह मू करते हमेशा… Continue reading ये आरजू थी तुझे गल के रू-ब-रू करते/ हैदर अली ‘आतिश’