रूपांतर इतिहास गाथाएं झूठ हैं सब सच है एक पेड जब तक वह फल देता है तब तक सच है जब यह दे नहीं सकता न पत्ते न छाया तब खाल सिकुडने लगती है उसकी और फिर एक दिन खत्म हो जाता है वह इतिहास बन जाता है और गाथा और सच से झूठ में… Continue reading रूपांतर / गंगा प्रसाद विमल
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कौन कहाँ रहता है / गंगा प्रसाद विमल
कौन कहां रहता है घर मुझमें रहता है या मैं घर में कौन कहां रहता है घर में घुसता हूँ तो सिकुड जाता है घर एक कुर्सी या पलंग के एक कोने में घर मेरी दृष्टि में स्मृति में तब कहीं नहीं रहता वह रहता है मुझमें मेरे अहंकार में फूलता जाता है घर जब… Continue reading कौन कहाँ रहता है / गंगा प्रसाद विमल
शेष / गंगा प्रसाद विमल
शेष कई बार लगता है मैं ही रह गया हूँ अबीता पृष्ठ बाकी पृष्ठों पर जम गई है धूल। धूल के बिखरे कणों में रह गए हैं नाम कई बार लगता है एक मैं ही रह गया हूँ अपरिचित नाम। इतने परिचय हैं और इतने सम्बंध इतनी आंखें हैं और इतना फैलाव पर बार-बार लगता… Continue reading शेष / गंगा प्रसाद विमल
हहर हवेली सुनि सटक समरकंदी / गँग
हहर हवेली सुनि सटक समरकंदी, धीर न धरत धुनि सुनत निसाना की। मछम को ठाठ ठठ्यो प्रलय सों पटलबौ ‘गंग’, खुरासान अस्पहान लगे एक आना की। जीवन उबीठे बीठे मीठे-मीठे महबूबा, हिए भर न हेरियत अबट बहाना की। तोसखाने, फीलखाने, खजाने, हुरमखाने, खाने खाने खबर नवाब ख़ानखाना की।
नवल नवाब खानख़ाना जू तिहारी त्रास / गँग
नवल नवाब खानख़ाना जू तिहारी त्रास, भागे देश पति धुनि सुनत निसान की। गंग कहै तिनहूं की रानी रजधानी छाँड़ि, फिरै बिललानी सुधि भूली खान-पान की। तेऊ मिली करिन हरिन मृग बानरानी, तिनहूं की भली भई रच्छा तहाँ प्रान की। सची जानी करिन, भवानी जानी केहरनि, मृगन कलानिधि, कपिन जानी जानकी॥
देखत कै वृच्छन में / गँग
देखत कै वृच्छन में दीरघ सुभायमान, कीर चल्यो चाखिबे को प्रेम जिय जग्यो है. लाल फल देखि कै जटान मँड़रान लागे, देखत बटोही बहुतेरे डगमग्यो है. गंग कवि फल फूटे भुआ उधिराने लखि, सबही निरास ह्वै कै निज गृह भग्यो है. ऐसो फलहीन वृच्छ बसुधा में भयो, यारो, सेंमर बिसासी बहुतेरन को ठग्यो है.
झुकत कृपान मयदान ज्यों / गँग
झुकत कृपान मयदान ज्यों उदोत भान, एकन ते एक मान सुषमा जरद की. कहै कवि गंग तेरे बल को बयारि लगे, फूटी गजघटा घनघटा ज्यों सरद की. एन मान सोनित की नदियाँ उमड़ चलीं, रही न निसानी कहूँ महि में गरद की. गौरी गह्यो गिरिपति, गनपति गह्यो गौरी, गौरीपति गही पूँछ लपकि बरद की.
बैठी थी सखिन संग / गँग
बैठी थी सखिन सँग,पिय को गवन सुन्यौ , सुख के समूह में बियोग आगि भरकी. गंग कहै त्रिविध सुगंध कै पवन बह्यो, लागत ही ताके तन भई बिथा जर की. प्यारी को परसि पौन गयो मानसर कहूँ , लागत ही औरे गति भई मानसर की. जलचर चरे औ सेवार जरि छार भयो, तल जरि गयो,पंक… Continue reading बैठी थी सखिन संग / गँग
चकित भँवरि रहि गयो / गँग
चकित भँवरि रहि गयो, गम नहिं करत कमलवन, अहि फन मनि नहिं लेत, तेज नहिं बहत पवन वन। हंस मानसर तज्यो चक्क चक्की न मिलै अति, बहु सुंदरि पदिमिनी पुरुष न चहै, न करै रति। खलभलित सेस कवि गंग भन, अमित तेज रविरथ खस्यो, खानान खान बैरम सुवन जबहिं क्रोध करि तंग कस्यो॥ कहा जाता… Continue reading चकित भँवरि रहि गयो / गँग
अब तौ गुनियाँ दुनियाँ को भजै / गँग
अब तौ गुनियाँ दुनियाँ को भजै, सिर बाँधत पोट अटब्बर की॥ कवि ‘गंग तो एक गोविंद भजै, कुछ संक न मानत जब्बर की। जिनको हरि की परतीत नहीं, सो करौ मिल आस अकब्बर की॥