कारी कूर कोकिल कहाँ को बैर काढ़ति री, कूकि कूकि अबही करेजो किन कोरि रै. पेंड़ परै पापी ये कलापी निसि द्यौस ज्यों ही, चातक रे घातक ह्वै तुहू कान फोरि लै. आँनंद के घन प्रान जीवन सुजान बिना, जानि कै अकेली सब घरोदल जोरि लै. जौं लौं करै आवन बिनोद बरसावन वे, तौ लौं… Continue reading कारी कूर कोकिला / घनानंद
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अति सूधो सनेह को मारग है / घनानंद
अति सूधो सनेह को मारग है जहाँ नेकु सयानप बाँक नहीं। तहाँ साँचे चलैं तजि आपनपौ झिझकैं कपटी जे निसाँक नहीं॥ घनआनंद प्यारे सुजान सुनौ यहाँ एक ते दूसरो आँक नहीं। तुम कौन धौं पाटी पढ़े हौ लला, मन लेहु पै देहु छटाँक नहीं॥
सोंधे की बास उसासहि रोकति / घनानंद
सौंधे की बास उसासहिं रोकत, चंदन दाहक गाहक जी कौ । नैनन बैरी सो है री गुलाल, अधीर उड़ावत धीरज ही कौ ॥ राग-विराग, धमार त्यों धार-सी लौट परयौ ढँग यों सब ही कौ । रंग रचावन जान बिना, ’घनआनँद’ लागत फागुन फीकौ ॥
पीरी परि देह छीनी / घनानंद
पीरी परी देह छीनी, राजत सनेह भीनी, कीनी है अनंग अंग-अंग रंग बोरी सी । नैन पिचकारी ज्यों चल्यौई करै रैन-दिन, बगराए बारन फिरत झकझोरी सी ॥ कहाँ लौं बखानों ’घनआनँद’ दुहेली दसा, फाग मयी भी जान प्यारी वह भोरी सी । तिहारे निहारे बिन, प्रानन करत होरा, विरह अँगारन मगरि हिय होरी सी ॥
ए रे वीर पौन / घनानंद
एरे बीर पौन ,तेरो सबै ओर गौन, बारी तो सों और कौन मनौं ढरकौंहीं बानि दै. जगत के प्रान ओछे बड़े को समान ‘घनआनन्द’ निधान सुखधानि दीखयानि दै. जान उजियारे गुनभारे अन्त मोही प्यारे अब ह्वै अमोही बैठे पीठि पहिचानि दै. बिरह विथा की मूरि आँखिन में राखौ पुरि.
इस बाँट परी सुधि / घनानंद
इन बाट परी सुधि रावरे भूलनि, कैसे उराहनौ दीजिए जू. इक आस तिहारी सों जीजै सदा, घन चातक की गति लीजिए जू. अब तौ सब सीस चढाये लई, जु कछु मन भाई सो कीजिये जू. ‘घनआनन्द’ जीवन -प्रान सुजान, तिहारिये बातनि जीजिये जू.
निस-द्यौस खरी उर-माँझ अरी / घनानंद
निसि द्यौस खरी उर माँझ अरी छबि रंग भरी मुरि चाहनि की. तकि मोरनि त्यों चख ढोरि रहैं,ढरिगो हिय ढोरनि बाहनि की. छत द्वै कटि पै बट प्रान गए गति हों मति में अवगाहिनी की. घनआँनंद जान लग्यो तब तें जक वागियै मोहि कराहनि की.
मेरो जीव जो मारतु मोहिं तौ / घनानंद
मेरोई जिव जो मारतु मोहिं तौ, प्यारे, कहा तुमसों कहनो है. आँखिनहू यह बानि तजी, कुछ ऐसोइ भोगनि को लहनौ है . आस तिहारियै ही ‘घनआनन्द’, कैसे उदास भयो रहनौ है . जानि के होत इते पै अजान जो, तौ बिन पावक ही दहनौ है.
राति-द्यौस कटक सजे / घनानंद
राति-द्यौस कटक सचे ही रहे, दहै दुख कहा कहौं गति या वियोग बजमर की . लियो घेरि औचक अकेली कै बिचारो जीव, कछु न बसाति यों उपाव बलहारे की . जान प्यारे, लागौ न गुहार तौ जुहार करि, जूझ कै निकसि टेक गहै पनधारे की . हेत-खेत धूरि चूर चूर ह्वै मिलैगी,तब चलैंगी कहानी ‘घनआनन्द’… Continue reading राति-द्यौस कटक सजे / घनानंद
घनआनँद जीवन मूल सुजान की / घनानंद
’घनाआनँद’ जीवन मूल सुजान की , कौंधनि हू न कहूँ दरसैं । सु न जानिये धौं कित छाय रहे, दृग चातक प्रान तपै तरसैं ॥ बिन पावस तो इन्हें थ्यावस हो न, सु क्यों करि ये अब सो परसैं। बदरा बरसै रितु में घिरि कै, नितहीं अँखियाँ उघरी बरसैं ॥