मैं पवित्रता की कसौटी पर पवित्रतम हूँ क्योंकि मैं तुम्हारे समाज को अपवित्र होने से बचाती हूँ। सारे बनैले-खूंखार भावों को भरती हूँ कोमलतम भावनाओं को पुख्ता करती हूँ। मानव के भीतर की उस गाँठ को खोलती हूँ जो इस सामाजिक तंत्र को उलझा देता जो घर को, घर नहीं द्रौपदी के चीरहरण का सभालय… Continue reading वेश्या / ऋतु पल्लवी
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जीने भी दो / ऋतु पल्लवी
महानगर में ऊँचे पद की नौकरी अच्छा-सा जीवन साथी और हवादार घर यही रूपरेखा है- युवा वर्ग की समस्याओं का और यही निदान भी। इस समस्या को कभी आप तितली, फूल और गंध से जोड़ते हैं, रूमानी खाका खींचते हैं, उसके सपनों, उम्मीदों-महत्वाकांक्षाओं का। कभी प्रगतिवाद, मार्क्सवाद, सर्ववाद से जोड़कर मीमांसा करते हैं उसके अन्तर्द्वन्द्व… Continue reading जीने भी दो / ऋतु पल्लवी
याद / ऋतु पल्लवी
शांत-प्रशांत समुद्र के अतल से उद्वेलित एक उत्ताल लहर वेगवती उमड़ती किसी नदी को समेट कर शांत करता सागर। किसी घोर निविड़तम से वनपाखी का आह्वान प्रथम प्यास में ही चातक को जैसे स्वाति का संधान। अंध अतीत की श्रंखला से उज्ज्वल वर्तमान की कड़ी भविष्य के शून्य से पुनः अन्धतम में मुड़ती लड़ी
अकेलापन / ऋतु पल्लवी
एक दिन जब बहुत अलसाने के बाद आँखे खोलीं, खिड़की से झरते हल्के प्रकाश को बुझ जाते देखा एक छोटे बच्चे से नन्हे सूरज को आते-जाते देखा नीचे झाँककर देखा हँसते–खिलखिलाते, लड़ते-झगड़ते पड़ोस के बच्चे प्रातः के बोझ को ढोते पाँवों की भीड़ पर स्वर एक भी सुनाई नहीं पड़ा या यूँ कहूँ कि सुन… Continue reading अकेलापन / ऋतु पल्लवी
घर / ऋतु पल्लवी
भीड़ भरी सड़कों की चीख़ती आवाज़ें अक्सर खींचती हैं मुझे.. और घर के सन्नाटे से घबराकर, में उस ओर बढ़ जाती हँ …ठिठक-ठिठक कर क़दम बढाती हूँ। भय है मुझे उन विशालकाय खुले रास्तों से कि जहाँ से कोई रास्ता कहीं नहीं जाता है बस अपनी ओर बुलाता है। पर यह निर्वाक शाम उकताहट की… Continue reading घर / ऋतु पल्लवी
कभी-कभी यूँ ही मुस्काना / ऋतु पल्लवी
कभी-कभी यूँ ही मुस्काना मन को भाता है. पावस के पीले पत्तों को स्वर्ण रंग दे हार बना निज स्वप्न वर्ण दे वासंती सा मोह जगाना,मन को भाता है. कभी-कभी यूँ ही मुस्काना मन को भाता है . व्यर्थ जूही-दल,मिथ्य वृन्द-कमल केवल भरमाने को प्रस्तुत रंग-परिमल इससे तो सुदूर विपिन में गिरे पलाश का मान… Continue reading कभी-कभी यूँ ही मुस्काना / ऋतु पल्लवी
क्यों नहीं / ऋतु पल्लवी
नीला आकाश ,सुनहरी धूप ,हरे खेत पीले पत्ते ही क्यों उपमान बनते हैं ! कभी बेरंग रेगिस्तान में क्यों गुलाबी फूलों की बात नहीं होती ? रूप की रोशनी ,तारों की रिमझिम, फूलों की शबनमी को ही क्यों सराहते हैं लोग! कभी अनमनी अमावस की रात में क्यों चाँद की चांदनी नहीं सजती ? नेताओं के नारे ,पत्रकारों… Continue reading क्यों नहीं / ऋतु पल्लवी
उम्मीद / ऋतु पल्लवी
तुम्हारा प्यार डायरी के पन्ने पर स्याही की तरह छलक जाता है और मैं उसे समेट नहीं पाती मेरे मन की बंजर धरती उसे सोख नहीं पाती. रात के कोयले से घिस -घिस कर मांजती हूँ मैं रोज़ दिया पर तुम्हारे रोशन चेहरे की सुबह उसमे कभी देख नहीं पाती. सीधी राह पर चलते फ़कीर… Continue reading उम्मीद / ऋतु पल्लवी
मृत्यु / ऋतु पल्लवी
जब विकृत हो जाता है,हाड़-मांस का शरीर निचुड़ा हुआ निस्सार खाली हो जाता है संवेदना का हर आधार.. सोख लेता है वक्त भावनाओं को, सिखा देते हैं रिश्ते अकेले रहना (परिवार में) अनुराग,ऊष्मा,उल्लास,ऊर्जा,गति सबका एक-एक करके हिस्सा बाँट लेते हैं हम और आँख बंद कर लेते हैं. पूरे कर लेते हैं-अपने सारे सरोकार और निरर्थकता… Continue reading मृत्यु / ऋतु पल्लवी
मुस्काना / ऋतु पल्लवी
दो कलि सामान कोमल अधरों पर शांत चित्त की सहज कोर धर अलि की सरस सुरभि को भी हर प्रथम उषा की लाली भर कर स्निग्ध सरस सम बहता सीकर चिर आशा का अमृत पीकर साँसों की एक मंद लहर से कलि द्वय का स्पंदित हो जाना तभी उन्हीं के मध्य उभरते मुक्तक पंक्ति का… Continue reading मुस्काना / ऋतु पल्लवी