मैं अपनी आँख भी ख़्वाबों से धो नहीं पाया मैं कैसे दूँगा ज़माने को जो नहीं पाया शब-ए-फ़िराक़ थे मौसम अजीब था दिल का मैं अपने सामने बैठा था रो नहीं पाया मिरी ख़ता है कि मैं ख़्वाहिशों के जंगल में कोई सितारा कोई चाँद बो नहीं पाया हसीन फूलों से दीवार-ओ-दर सजाए थे बस… Continue reading मैं अपनी आँख भी ख़्वाबों से धो नहीं पाया / ख़ालिद मलिक ‘साहिल’
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कुछ दिल का तअल्लुक़ तो निभाओ कि चला मैं / ख़ालिद मलिक ‘साहिल’
कुछ दिल का तअल्लुक़ तो निभाओ कि चला मैं या टूट के आवाज़ लगाओ कि चला मैं दरपेश मसाफ़त है किसी ख़्वाब-नगर की इक दीप मिरे पास जलाओ कि चला मैं इस शहर के लोगों पे भरोसा नहीं करना ज़ंजीर कोई दर पे लगाओ कि चला मैं ता-दिल में तुम्हारे भी न एहसास-ए-वफ़ा हो जी… Continue reading कुछ दिल का तअल्लुक़ तो निभाओ कि चला मैं / ख़ालिद मलिक ‘साहिल’
किसी भी राह पे रूकना न फ़ैसला कर के / ख़ालिद मलिक ‘साहिल’
किसी भी राह पे रूकना न फ़ैसला कर के बिछड़ रहे हो मिरी जान हौसला कर के मैं इंतिज़ार की हालत में रह नहीं सकता वो इंतिहा भी करे आज इब्तिदा कर के तिरी जुदाई का मंज़र बयाँ नहीं होगा मैं अपना साया भी रक्खूँ अगर जुदा कर के मुझे तो बहर-ए-बला-ख़ेज की ज़रूरत थी… Continue reading किसी भी राह पे रूकना न फ़ैसला कर के / ख़ालिद मलिक ‘साहिल’
बड़े जतन से बड़े सोच से उतारा गया / ख़ालिद मलिक ‘साहिल’
बड़े जतन से बड़े सोच से उतारा गया मिरा सितारा सर-ए-ख़ाक भी सँवारा गया मिरी वफ़ा ने जुनूँ का हिसाब देना था सो आज मुझ को बयाबान से पुकारा गया बस एक ख़ौफ़ था ज़िंदा तिरी जुदाई का मिरा वो आख़िरी दुश्मन भी आज मारा गया मुझे यक़ीन था इस तज-रबे से पहले भी सुना… Continue reading बड़े जतन से बड़े सोच से उतारा गया / ख़ालिद मलिक ‘साहिल’
ज़वाँ रातों में काला दश्त / ख़ालिद कर्रार
ज़वाँ रातों में काला दश्त क़ालब में उतरता है के मेरे जिस्म ओ जाँ के मर्ग़-ज़ारों की महक हवा के दोश पर रक़्स करती है प्यासी रेत सहराओं की धँसती है रग ओ पय में उधड़ते हैं मसामों से लहू-ज़ारों के चश्मे बर्फ़ कोहसार के सारे परिंदे गीत गाते हैं हुबाब उठता है गहरे नील-गूँ-ज़िंदा… Continue reading ज़वाँ रातों में काला दश्त / ख़ालिद कर्रार
व्यवस्था भी बहुत ज़्यादा नहीं है / ख़ालिद कर्रार
व्यवस्था भी बहुत ज़्यादा नहीं है जतन जोखम बहुत हैं आगे जो जंगल है वो उस से भी ज़्यादा गुंजलक है तपस्या के ठिकाने ज्ञान के मंतर ध्यान की हर एक सीढ़ी पर वही मूरख अजब सा जाल ताने बैठा है युगों से न जाने क्यूँ मेरे रावण से उस को पराजय का ख़तरा है… Continue reading व्यवस्था भी बहुत ज़्यादा नहीं है / ख़ालिद कर्रार
जला रहा हूँ / ख़ालिद कर्रार
जला रहा हूँ कई यूगों से मैं उस को ख़ुद ही जला रहा हूँ जला रहा हूँ कि उसे के जलमे में जीत मेरी है मात उस की जला रहा हूँ बड़े पिण्डाल में सजा कर जला रहा हूँ मिटा रहा हूँ मगर वो मेरी ही मन की अँधेर नगरी में जी रहा हूँ वो… Continue reading जला रहा हूँ / ख़ालिद कर्रार
मुझे बता कर / ख़ालिद कर्रार
मुझे बता कर के मेरी सम्त-ए-सफ़र कहाँ है कई ख़ज़ानों के बे-निशान नक़्शे मुझे थमा कर कहा था उस ने के सातवें दर से और आगे तुम्हारी ख़ातिर मेरा वो बाब-ए-बक़ा खुला है मगर वहाँ पर तमाम दर वा थे मेरी ख़ातिर वो सातवाँ दर खुला नहीं था मगर वहाँ पर कोई भी राज़-ए-बक़ा नहीं… Continue reading मुझे बता कर / ख़ालिद कर्रार
गो हमें मालूम था / ख़ालिद कर्रार
गो हमें मालूम था के अब वो सिलसिला बाक़ी नहीं है गो हमें मालूम था के नूह आने के नहीं अब हाँ मगर जब शहर में पानी दर आया हम ने कफछ मौहूम उम्मीदों को पाला और इक बड़े पिंडाल पे यकजा हुए हम और ब-यक आवाज़ हम ने नूह को फिर से पुकारा गो… Continue reading गो हमें मालूम था / ख़ालिद कर्रार
आँख वा थी / ख़ालिद कर्रार
आँख वा थी होंट चुप थे एक रिदा-ए-यख़ हवा ने ओढ़ ली थी जबीं ख़ामोश सज्दे बे-ज़बाँ थे आगे इक काला समंदर पीछे सुब्ह-ए-आतिशीं थी और जब लम्हें रवाँ थे हम कहाँ थे