शाम और मज़दूर-3 / अख़्तर यूसुफ़

मज़दूर शाम के साथ घर लौट रहा है गलियाँ जल्दी और जल्दी सुनसान हो रही हैं गाँव में कभी बिजली नहीं आती है अकसर गिर जाती है तेल मिट्टी का अब शहर में लोग पीते हैं अधर का पानी मरता जाता है मज़दूर और शाम जाने कब से साथ-साथ जीते हैं और रोज़ झोंपड़ी के… Continue reading शाम और मज़दूर-3 / अख़्तर यूसुफ़

शाम और मज़दूर-2 / अख़्तर यूसुफ़

शाम और मज़दूर दोनों नदी में अपना मुँह धोते हैं दिन भर की धूल गर्द चेहरों पे जमी थी थक गए थे दोनों शाम और मज़दूर सोच रहे थे कुटिया जल्दी से पहुँचेंगे मिलकर दोनों खाएंगे रोटी और गुड़ फिर गुड़ की ही चाय बनाएंगे मिलकर दोनों सोंधी-सोंधी चुसकियाँ लेंगे सोच मज़दूर की गुड़ की… Continue reading शाम और मज़दूर-2 / अख़्तर यूसुफ़

शाम और मज़दूर-1 / अख़्तर यूसुफ़

शाम और मज़दूर खेतों के सब्ज़ सन्नाटे से गुज़र रहे हैं बालियाँ खड़ी हैं शाएँ-शाएँ हलका-सा कहीं-कहीं पे होता है गाँव के लड़के और लड़कियाँ बे लिबास उछल-कूद करते हैं गड्ढों में जैसे छपाक फिर साँप कोई लहराता है और फिर छट-पट गिलहरी की धूप खेतों से गुज़र कर पहाड़ों के ऊपर चढ़ती है थकी-थकी… Continue reading शाम और मज़दूर-1 / अख़्तर यूसुफ़

ये औरतें / अख्तर पयामी

सोच लो सोच लो जीने का अंदाज़ नहीं अपनी बाँहों का यही रंग नुमायाँ न करो हुस्न ख़ुद ज़ीनत-ए-महफ़िल है चराग़ाँ न करो नीम-उरियाँ सा बदन और उभरते सीने तंग और रेशमी मलबूस धड़कते सीने तार जब टूट गए साज़ कोई साज़ नहीं तुम तो औरत हो मगर ज़िंस-ए-गिराँ बन न सकीं और आँखों की… Continue reading ये औरतें / अख्तर पयामी

शनासाई / अख्तर पयामी

रात के हाथ पे जलती हुई इक शम-ए-वफ़ा अपना हक़ माँगती है दूर ख़्वाबों के जज़ीरे में किसी रोज़न से सुब्ह की एक किरन झाँकती हैं वो किरन दर पा-ए-आज़ार हुई जाती है मेर ग़म-ख़्वार हुई जाती है आओ किरनों को अँधेरों का कफ़न पहनाएँ इक चमकता हुआ सूरज सर-ए-मक़्तल लाएँ तुम मेरे पास रहो… Continue reading शनासाई / अख्तर पयामी

रिवायत की तख़्लीक़ / अख्तर पयामी

मेरे नग़मे तो रिवायत के पाबंद नहीं तू ने शायद यही समझा था नदीम तू ने समझा था की शबनम की ख़ुनुक-ताबी से मैं तेरा रंग महल और सजा ही दूँगा तू ने समझा था की पीपल के घने साए में अपने कॉलेज के ही रूमान सुनाऊँगा तुझे एक रंगीन सी तितली के परों के… Continue reading रिवायत की तख़्लीक़ / अख्तर पयामी

पर्दा जंगारी / अख्तर पयामी

देख इन रेशमी पर्दों की हदों से बाहर देख लोहे की सलाख़ों से परे देख सकड़ों पे ये आवारा मिज़ाजों का हुजूम देख तहजीब के मारों का हुजूम अपनी आँखों में छुपाए हुए अरमाल की लाश काफ़िले आते चले जाते हैं ज़िंदगी एक ही महवर का सहारा ले कर नाचते नाचते थक जाती है नाचते… Continue reading पर्दा जंगारी / अख्तर पयामी

लम्स-ए-आख़िरी / अख्तर पयामी

न रोओ जब्र का आदी हूँ मुझे पे रहम करो तुम्हें क़सम मेरी वारफ़्ता ज़िंदगी की क़सम न रोओ बाल बिखेरो न तुम ख़ुदा के लिए अँधेरी रात में जुगनू की रौशनी की क़सम मैं कह रहा हूँ न रोओ कि मुझ को होश नहीं यही तो ख़ौफ़ है आँसू मुझे बहा देंगे मैं जानता… Continue reading लम्स-ए-आख़िरी / अख्तर पयामी

ख़त-ए-राह-गुज़ार / अख्तर पयामी

सिलसिले ख़्वाब के गुमनाम जज़ीरों की तरह सीना आब पे हैं रक़्स कुनाँ कौन समझे कि ये अँदेशा-ए-फ़र्दा की फ़ुसूँ-कारी है माह ओ ख़ुर्शीद ने फेंके हैं कई जाल इधर तीरगी गेसू-ए-शब तार की ज़ंजीर लिए मेरे ख़्वाबों को जकड़ने के लिए आई है ये तिलिस्म-ए-सहर-ओ-शाम भला क्या जाने कितने दिल ख़ून हैं अंगुश्त हिनाई… Continue reading ख़त-ए-राह-गुज़ार / अख्तर पयामी

घरोंदे / अख्तर पयामी

घंटियाँ गूँज उठीं गूँज उठीं गैस बेकार जलाते हो बुझा दो बर्नर अपनी चीज़ों को उठा कर रक्खो जाओ घर जाओ लगा दो ये किवाड़ एक नीली सी हसीं रंग की कॉपी लेकर मैं यहाँ घर को चला आता हूँ एक सिगरेट को सुलगाता हूँ वो मेरी आस में बैठी होगी वो मेरी राह भी… Continue reading घरोंदे / अख्तर पयामी