खास गिद्ध बचे होते पहले जितने या उतने जितना जरूरी ही था गिद्धों का बचा रहना तो यह दिन गिद्धों की चांदी के दिन होते। हाडोड़ में एक जैसे स्वाद से उकतायें गिद्ध अब आसानी से बदल सकते जीभ का स्वाद कोई न कोई शैतान अपने तहखाने में बसा लेता गिद्धों की बस्ती आराम से… Continue reading गिद्धों की चांदी के दिन / ओम नागर
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जमीन और जमनालाल-तीन / ओम नागर
तमाम कोशिशों के बावजूद जमनालाल खेत की मेड़ से नहीं हुआ टस से मस सिक्कों की खनक से नहीं खुले उसके जूने जहन के दरीचे। दूर से आ रही बंदूकों की आवाजों में खो गई उसकी आखिरी चीख पैरों को दोनों हाथों से बांधे हुए रह गया दुहरा का दुहरा। एक दिन लाल-नीली बत्तियों का… Continue reading जमीन और जमनालाल-तीन / ओम नागर
जमीन और जमनालाल-दो / ओम नागर
उठो! जमनालाल अब यूं उदास खेत की मेड़ पर बैठे रहने से कोई फायदा नहीं होने वाला। तुम्हें और तुम्हारी आने वाली पीढियों को एक न एक दिन तो समझना ही था जमीन की व्याकरण में अपने और राज के मुहावरों का अंतर। तुम्हारी जमीन क्या छिनी जमनालाल सारे जनता के हिमायती सफेदपोशों ने डाल… Continue reading जमीन और जमनालाल-दो / ओम नागर
जमीन और जमनालाल-एक / ओम नागर
आजकल आठों पहर यूं खेत की मेड़ पर उदास क्यों बैठे रहते हो जमनालाल क्या तुम नहीं जानते जमनालाल कि तुम्हारें इसी खेत की मेड़ को चीरते हुए निकलने को बेताब खडा है राजमार्ग क्या तुम बिसर गये हो जमनालाल ‘‘बेटी बाप की और धरती राज की होती है और राज को भा गये है… Continue reading जमीन और जमनालाल-एक / ओम नागर
भूख का अधिनियम-तीन / ओम नागर
इन दिनों जितनी लंबी फेहरिस्त है भूख को भूखों मारने वालों की उससे कई गुना भूखे पेट फुटपाथ पर बदल रहें होते है करवटें। इसी दरमियां भूख से बेकल एक कुतिया निगल चुकी होती है अपनी ही संतानें घीसू बेच चुका होता है कफन काल कोठरी से निकल आती है बूढ़ी काकी इरोम शर्मिला चानू… Continue reading भूख का अधिनियम-तीन / ओम नागर
भूख का अधिनियम-दो / ओम नागर
एक दिन भूख के भूकंप से थरथरा उठेंगी धरा इस थरथराहट में तुम्हारी कंपकंपाहट का कितना योगदान यह शायद तुम भी नहीं जानते तनें के वजूद को कायम रखने के लिए पत्त्तियों की मौजूदगी की दरकार का रहस्य जंगलों ने भरा है अग्नि का पेट। भूख ने हमेशा से बनायें रखा पेट और पीठ के… Continue reading भूख का अधिनियम-दो / ओम नागर
भूख का अधिनियम-एक / ओम नागर
शायद किसी भी भाषा के शब्द कोश में अपनी पूरी भयावहता के साथ मौजूद रहने वाला शब्द है भूख जीवन में कई-कई बार पूर्ण विराम की तलाश में कौमाओं के अवरोध नही फलांग पाती भूख। पूरे विस्मय के साथ समय के कंठ में अर्द्धचन्द्राकार झूलती रहती है कभी न उतारे जा सकने वाले गहनों की… Continue reading भूख का अधिनियम-एक / ओम नागर
मेरे गाँव के स्कूल के बच्चें / ओम नागर
मेरे गाँव के स्कूल के बच्चें नहीं सीख पाते पहली, दूसरी, तीसरी कक्षा तक भी बारहखड़ी, दस तक पहाड़ा जीभ से स्लेट चाटकर मिटाते रहते है दिनभर ‘अ’ से ‘ज्ञ’ तक के तमाम अक्षर । मेरे गाँव के स्कूल के बच्चें अच्छी तरह से बता सकते है बनिये की दुकान पर मिलने वाले जर्दे के… Continue reading मेरे गाँव के स्कूल के बच्चें / ओम नागर
पिता की वर्णमाला / ओम नागर
पिता के लिए काला अक्षर भैंस बराबर। पिता नहीं गए कभी स्कूल जो सीख पाते दुनिया की वर्णमाला पिता ने कभी नहीं किया काली स्लेट पर जोड़-बाकी, गुणा-भाग पिता आज भी नहीं उलझना चाहते किसी भी गणितीय आंकड़े में। किसी भी वर्णमाला का कोई अक्षर कभी घर बैठे परेशान करने नहीं आया पिता को। पिता… Continue reading पिता की वर्णमाला / ओम नागर
तुम्हारा विश्वास / ओम नागर
सतूल की तरह कितनी जल्दी धसक जाता है तुम्हारा विश्वास बनिये की दुकान पर मिलता होता तो कब का धर देता तुम्हारी छाले पड़ी हथेली पे दो मुट्ठी विश्वास। बालू के घरौंदों की तरह पग हटाते ही कण-कण बिखर जाता है, तुम्हारा विश्वास खुद अपने हाथों से आकाश में उछाल देती हो तुम दीवारें, देहरी… Continue reading तुम्हारा विश्वास / ओम नागर