शरीर / ऋतुराज

सारे रहस्य का उद्घाटन हो चुका और तुम में अब भी उतनी ही तीव्र वेदना है आनंद के अंतिम उत्‍कर्ष की खोज के समय की वेदना असफल चेतना के निरवैयक्तिक स्पर्शों की वेदना आयु के उदास निर्बल मुख की विवशता की वेदना अभी उस प्रथम दिन के प्राण की स्मृति शेष है और बीच के… Continue reading शरीर / ऋतुराज

कन्यादान / ऋतुराज

कितना प्रामाणिक था उसका दुख लड़की को दान में देते वक़्त जैसे वही उसकी अंतिम पूंजी हो लड़की अभी सयानी नहीं थी अभी इतनी भोली सरल थी कि उसे सुख का आभास होता था लेकिन दुख बाँचना नहीं आता था पाठिका थी वह धुंधले प्रकाश की कुछ तुकों और लयबद्ध पंक्तियों की माँ ने कहा… Continue reading कन्यादान / ऋतुराज

लहर / ऋतुराज

द्वार के भीतर द्वार द्वार और द्वार और सबके अंत में एक नन्हीं मछली जिसे हवा की ज़रूरत है प्रत्येक द्वार में अकेलापन भरा है प्रत्येक द्वार में प्रेम का एक चिह्न है जिसे उल्टा पढ़ने पर मछली मछली नहीं रहती है आँख हो जाती है आँख आँख नहीं रहती है आँसू बनकर चल देती… Continue reading लहर / ऋतुराज

नए हाइकु / ऋतु पल्लवी

1- नभ में पंछी सागर – तन मीन कहाँ बसूँ मैं ? 2- कितना लूटा धन संपदा यश घर न मिला . 3-चंदन -साँझ रच बस गयी है मन खाली था. 4-स्याही से मत लिखो ,रचनाओं को मन उकेरो . 5-बच्चे को मत पढ़ाओ तुम ,मन उसका पढ़ो. 6-बात सबसे करते हैं ,मगर मन की नहीं… Continue reading नए हाइकु / ऋतु पल्लवी

औरत / ऋतु पल्लवी

पेचीदा, उलझी हुई राहों का सफ़र है कहीं बेवज़ह सहारा तो कहीं खौफ़नाक अकेलापन है कभी सख्त रूढि़यों की दीवार से बाहर की लड़ाई है… ..तो कभी घर की ही छत तले अस्तित्व की खोज है समझौतों की बुनियाद पर खड़ा ये सारा जीवन जैसे-जैसे अपने होने को घटाता है… दुनिया की नज़रों में बड़ा… Continue reading औरत / ऋतु पल्लवी

आप अपना… / ऋतु पल्लवी

आज मैंने आप अपना आईने में रख दिया है और आईने की सतह को पुरज़ोर स्वयं से ढक दिया है। कुछ पुराने हर्फ– दो-चार पन्ने जिन्हें मैंने रात की कालिख बुझाकर कभी लिखा था नयी आतिश जलाकर आज उनकी आतिशी से रात को रौशन किया है। आलों और दराजों से सब फाँसे खींची यादों के… Continue reading आप अपना… / ऋतु पल्लवी

वेश्या / ऋतु पल्लवी

मैं पवित्रता की कसौटी पर पवित्रतम हूँ क्योंकि मैं तुम्हारे समाज को अपवित्र होने से बचाती हूँ। सारे बनैले-खूंखार भावों को भरती हूँ कोमलतम भावनाओं को पुख्ता करती हूँ। मानव के भीतर की उस गाँठ को खोलती हूँ जो इस सामाजिक तंत्र को उलझा देता जो घर को, घर नहीं द्रौपदी के चीरहरण का सभालय… Continue reading वेश्या / ऋतु पल्लवी

जीने भी दो / ऋतु पल्लवी

महानगर में ऊँचे पद की नौकरी अच्छा-सा जीवन साथी और हवादार घर यही रूपरेखा है- युवा वर्ग की समस्याओं का और यही निदान भी। इस समस्या को कभी आप तितली, फूल और गंध से जोड़ते हैं, रूमानी खाका खींचते हैं, उसके सपनों, उम्मीदों-महत्वाकांक्षाओं का। कभी प्रगतिवाद, मार्क्सवाद, सर्ववाद से जोड़कर मीमांसा करते हैं उसके अन्तर्द्वन्द्व… Continue reading जीने भी दो / ऋतु पल्लवी

याद / ऋतु पल्लवी

शांत-प्रशांत समुद्र के अतल से उद्वेलित एक उत्ताल लहर वेगवती उमड़ती किसी नदी को समेट कर शांत करता सागर। किसी घोर निविड़तम से वनपाखी का आह्वान प्रथम प्यास में ही चातक को जैसे स्वाति का संधान। अंध अतीत की श्रंखला से उज्ज्वल वर्तमान की कड़ी भविष्य के शून्य से पुनः अन्धतम में मुड़ती लड़ी

अकेलापन / ऋतु पल्लवी

एक दिन जब बहुत अलसाने के बाद आँखे खोलीं, खिड़की से झरते हल्के प्रकाश को बुझ जाते देखा एक छोटे बच्चे से नन्हे सूरज को आते-जाते देखा नीचे झाँककर देखा हँसते–खिलखिलाते, लड़ते-झगड़ते पड़ोस के बच्चे प्रातः के बोझ को ढोते पाँवों की भीड़ पर स्वर एक भी सुनाई नहीं पड़ा या यूँ कहूँ कि सुन… Continue reading अकेलापन / ऋतु पल्लवी