ज़मीन-2 / एकांत श्रीवास्तव

ज़मीन बिक जाने के बाद भी पिता के सपनों में बिछी रही रात भर वह जानना चाहती थी हल के फाल का स्‍वाद चीन्‍हना चाहती थी धॅंवरे बैलों के खुर वह चाहती थी कि उसके सीने में लहलहाएँ पिता की बोयी फसलें एक अटूट रिश्‍ते की तरह कभी नहीं टूटना चाहती थी ज़मीन बिक जाने… Continue reading ज़मीन-2 / एकांत श्रीवास्तव

ज़मीन-1 / एकांत श्रीवास्तव

ज़मीन उस स्‍लेट का नाम है जिस पर लिखी है हमारे बचपन की कविता ज़मीन उस फूल का नाम है जिसके रंग में है हमारे रक्‍त की चमक ज़मीन उस गीत का नाम है हमारे कॉंपते होंठों से जो अभी पैदा होगा।

वसन्त / एकांत श्रीवास्तव

वसन्‍त आ रहा है जैसे मॉं की सूखी छातियों में आ रहा हो दूध माघ की एक उदास दोपहरी में गेंदे के फूल की हॅंसी-सा वसन्‍त आ रहा है वसन्‍त का आना तुम्‍हारी ऑंखों में धान की सुनहली उजास का फैल जाना है काँस के फूलों से भरे हमारे सपनों के जंगल में रंगीन चिडियों… Continue reading वसन्त / एकांत श्रीवास्तव

कार्तिक-स्नान करने वाली लड़कियाँ / एकांत श्रीवास्तव

घर-घर माँगती हैं फूल साँझ गहराने से पहले कार्तिक-स्‍नान करने वाली लड़कियाँ…… फूल अगर केसरिया हो खिल उठती हैं लड़कियाँ एक केसरिया फूल से कार्तिक में मिलता है एक मासे सोने का पुण्‍य कहती हैं लड़कियाँ एक-एक फूल के लिए दौड़ती हैं, झपटती हैं लड़ती हैं लड़कियाँ और कॉंटों के चुभने की परवाह नहीं करतीं… Continue reading कार्तिक-स्नान करने वाली लड़कियाँ / एकांत श्रीवास्तव

सिला बीनती लड़कियाँ / एकांत श्रीवास्तव

धान-कटाई के बाद खाली खेतों में वे रंगीन चिडि़यों की तरह उतरती हैं सिला बीनने झुण्‍ड की झुण्‍ड और एक खेत से दूसरे खेत में उड़ती फिरती हैं दूबराज हो विष्‍णुभोग या नागकेसर वे रंग और खुशबू से उन्‍हें पहचान लेती हैं दोपहर भर फैली रहती है पीली धूप में उनकी हँसी और गुनगुनाहट उनके… Continue reading सिला बीनती लड़कियाँ / एकांत श्रीवास्तव

कार्तिक पूर्णिमा / एकांत श्रीवास्तव

आज सिरा रहे हैं लोग दोने में धरकर अपने-अपने दिये अपने-अपने फूल और मन्‍नतों की पीली रोशनी में चमक रही है नदी टिमटिमाते दीपों की टेढ़ी-मेढ़ी पाँतें साँवली स्‍लेट पर जैसे ढाई आखर हों कबीर के देख रहे हैं काँस के फूल खेतों की मेड़ों पर खड़े दूर से यह उत्‍सव चमक रहा है गाँव… Continue reading कार्तिक पूर्णिमा / एकांत श्रीवास्तव

सूखा / एकांत श्रीवास्तव

इस तरह मेला घूमना हुआ इस बार न बच्‍चे के लिए मिठाई न घरवाली के लिए टिकुली-चूड़ी न नाच न सर्कस इस बार जेबों में सिर्फ़ हाथ रहे उसका खालीपन भरते इस बार मेले में पहुँचने की ललक से पहले पहुँच गई लौटने की थकान एक खाली कटोरे के सन्‍नाटे में डूबती रही मेले की… Continue reading सूखा / एकांत श्रीवास्तव

लौटती बैलगाड़ी का गीत / एकांत श्रीवास्तव

जब नींद में डूब चुकी है धरती और केवल बबूल के फूलों की महक जाग रही है तब दूधिया चाँदनी में धान से लदी वह लौट रही है लौट रहे हैं अन्‍न बचपन बीत जाने के बाद बचपन को याद करते घंटियों की टुनुन-टुनुन गाँव की नींद तक पहुँच रही है और सारा गाँव अगुवानी… Continue reading लौटती बैलगाड़ी का गीत / एकांत श्रीवास्तव

अच्छे दिन / एकांत श्रीवास्तव

अच्‍छे दिन खरगोश हैं लौटेंगे हरी दूब पर उछलते-कूदते और हम गोद में लेकर उन्‍हें प्‍यार करेंगे अच्‍छे दिन पक्षी हैं उतरेंगे हरे पेड़ों की सबसे ऊँची फुनगियों पर और हम बहेलिये के जाल से उन्‍हें सचेत करेंगे अच्‍छे दिन दोस्‍त हैं मिलेंगे यात्रा के किसी मोड़ पर और हम उनसे कभी न बिछुड़ने का… Continue reading अच्छे दिन / एकांत श्रीवास्तव

सूर्य / एकांत श्रीवास्तव

उधर ज़मीन फट रही है और वह उग रहा है चमक रही हैं नदी की ऑंखें हिल रहे हैं पेड़ों के सिर और पहाड़ों के कन्‍धों पर हाथ रखता आहिस्‍ता-आहिस्‍ता वह उग रहा है वह खिलेगा जल भरी आँखों के सरोवर में रोशनी की फूल बनकर वह चमकेगा धरती के माथ पर अखण्‍ड सुहाग की… Continue reading सूर्य / एकांत श्रीवास्तव