कितना भीग जाता है मेरा मन खुली-खुली पलकों से आकर टकराता है घर मेरा देश पूरा परिवेश खुलती हैं घुमावदार गलियाँ उनमें खेलने लग पड़ता है बचपन बतियाती हैं पड़ोस की अधेड़ महिलाएँ मज़हब से परे होकर एक बूंद आँसू से धुल जाती हैं शिकायतें जलावतनी में जब देखता हूँ किसी भी कश्मीरी मुसलमान को
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तसलीमा नसरीन / अग्निशेखर
क्यों सुनी तुमने आत्मा की चीत्कार तुम्हें छोड़ना नहीं पड़ता रगों में बहता सुनहला देश यहाँ कितने लोगों को आई लाज अपनी ख़ामोशी पर मुझे नहीं मिला कोई भी दोस्त जिसने तुम्हारे आत्मघाती प्रेम पर की हो कोई बात मैं हूँ स्वयं भी जलावतन और लज्जित भी कि तुम्हारे लिए कर नहीं सका मैं भी… Continue reading तसलीमा नसरीन / अग्निशेखर
चांद / अग्निशेखर
बादलों के पीछे क़ैद है चांद अंधेरे में डुबकी मार कर आए हैं दिन खुली खिड़कियाँ कर रही हैं बादलों के हटने का इन्तज़ार उमस में स्थगित हैं लोगों के त्यौहार
आस / अग्निशेखर
बूढ़ा बिस्तर पर लेटे आँखों-आँखों नापता है आकाश फटे हुए तम्बू के सुराख़ों से उसकी झुर्रियों में गिर रही है समय की राख चुपचाप घूम रही है सिरहाने के पास घड़ी की सुई उसकी बीत रही है घर लौटने की आस
दस्तकें / अग्निशेखर
बन्द दरवाज़ों ने बुलाया दस्तकों को अपने पास घबराया समय और दस्तकों को हुआ कारावास इस तरह हर युग में बन्द दरवाज़े रहे उदास
ज़िन्दा / अग्निशेखर
मोड़ नहीं सकती है मछली पानी का प्रवाह न रोक ही सकती है उसकी मनमानी वह पानी में दिल थामकर बैठे चिकने पत्थरों के आगे-पीछे ढूँढ़ती है अपने जैसों को बेसब्री से वह उतरती है सेवाल के घने वनों में देती हुई आवाज़ काटती है नदी की धार वह जब देखती है ज़रा ठहरकर पानी… Continue reading ज़िन्दा / अग्निशेखर
सुरंग में / अग्निशेखर
बरसों लम्बी संकरी सुरंग में टटोलते हुए एक-एक क़दम हम दे रहे हैं कितना इम्तेहान फ़िलहाल सरक रहे हैं हम सुई की नोक जितनी रोशनी की तरफ़
भय मुक्त / अग्निशेखर
घर के अन्दर भी ख़तरा था घर से बाहर भी था जोख़िम उन्होंने खाया तरस हमारी हालत पर और एक-एक कर फूँक डाले हमारे घर अब न अन्दर ख़तरा है न बाहर जोख़िम
मेरी खाल से बने दस्ताने / अग्निशेखर
दस्तानों में छिपे हैं हत्यारों के हाथ एक दिवंगत आदमी कह रहा है हर किसी के सामने जाकर, ये दस्ताने मेरी खाल से बने हुए हैं ख़ुश हैं हत्यारे कि सभ्य लोग नहीं करते हैं आत्माओं पर विश्वास
डूब रहे हैं / अग्निशेखर
धँसते जा रहे हैं हम पहाड़ों से उतरकर दलदल में किसे आवाज़ दें रात के इस पहर में दूर-दूर तक पानी पर झूल रहा है आधे कोस का चांद सन्नाटे में डूब रहे हैं हम