ज्यों भेद जाता भानु का कर अन्धकार-समूह को, वह पार्थ-नन्दन घुस गया त्यों भेद चक्रव्यूह को। थे वीर लाखों पर किसी से गति न उसकी रुक सकी, सब शत्रुओं की शक्ति उसके सामने सहसा थकी।। पर साथ भी उसके न कोई जा सका निज शक्ति से, था द्वार रक्षक नृप जयद्रथ सबल शिव की शक्ति… Continue reading जयद्रथ-वध / प्रथम सर्ग / भाग २ / मैथिलीशरण गुप्त
जयद्रथ-वध / प्रथम सर्ग / भाग १ / मैथिलीशरण गुप्त
वाचक ! प्रथम सर्वत्र ही ‘जय जानकी जीवन’ कहो, फिर पूर्वजों के शील की शिक्षा तरंगों में बहो। दुख, शोक, जब जो आ पड़े, सो धैर्य पूर्वक सब सहो, होगी सफलता क्यों नहीं कर्त्तव्य पथ पर दृढ़ रहो।। अधिकार खो कर बैठ रहना, यह महा दुष्कर्म है; न्यायार्थ अपने बन्धु को भी दण्ड देना धर्म… Continue reading जयद्रथ-वध / प्रथम सर्ग / भाग १ / मैथिलीशरण गुप्त
भैंसागाड़ी / भगवतीचरण वर्मा
चरमर- चरमर- चूँ- चरर- मरर जा रही चली भैंसागाड़ी ! गति के पागलपन से प्रेरित चलती रहती संसृति महान; सागर पर चलते हैं जहाज , अंबर पर चलते वायुयान . भूतल के कोने-कोने में रेलों-ट्रामों का जाल बिछा , हैं दौड़ रही मोटर-बसें लेकर मानव का वृहत ज्ञान ! पर इस प्रदेश में जहाँ नहीं… Continue reading भैंसागाड़ी / भगवतीचरण वर्मा
मानव / भगवतीचरण वर्मा
जब किलका को मादकता में हंस देने का वरदान मिला जब सरिता की उन बेसुध सी लहरों को कल कल गान मिला जब भूले से भरमाए से भर्मरों को रस का पान मिला तब हम मस्तों को हृदय मिला मर मिटने का अरमान मिला। पत्थर सी इन दो आंखो को जलधारा का उपहार मिला सूनी… Continue reading मानव / भगवतीचरण वर्मा
बसन्तोत्सव / भगवतीचरण वर्मा
मस्ती से भरके जबकि हवा सौरभ से बरबस उलझ पड़ी तब उलझ पड़ा मेरा सपना कुछ नये-नये अरमानों से; गेंदा फूला जब बागों में सरसों फूली जब खेतों में तब फूल उठी सहस उमंग मेरे मुरझाये प्राणों में; कलिका के चुम्बन की पुलकन मुखरित जब अलि के गुंजन में तब उमड़ पड़ा उन्माद प्रबल मेरे… Continue reading बसन्तोत्सव / भगवतीचरण वर्मा
अज्ञात देश से आना / भगवतीचरण वर्मा
मैं कब से ढूँढ़ रहा हूँ अपने प्रकाश की रेखा तम के तट पर अंकित है निःसीम नियति का लेखा देने वाले को अब तक मैं देख नहीं पाया हूँ, पर पल भर सुख भी देखा फिर पल भर दुख भी देखा। किस का आलोक गगन से रवि शशि उडुगन बिखराते? किस अंधकार को लेकर… Continue reading अज्ञात देश से आना / भगवतीचरण वर्मा
मातृ-भू शत-शत बार प्रणाम / भगवतीचरण वर्मा
मातृ-भू, शत-शत बार प्रणाम ऐ अमरों की जननी, तुमको शत-शत बार प्रणाम, मातृ-भू शत-शत बार प्रणाम। तेरे उर में शायित गांधी, ‘बुद्ध औ’ राम, मातृ-भू शत-शत बार प्रणाम। हिमगिरि-सा उन्नत तव मस्तक, तेरे चरण चूमता सागर, श्वासों में हैं वेद-ऋचाएँ वाणी में है गीता का स्वर। ऐ संसृति की आदि तपस्विनि, तेजस्विनि अभिराम। मातृ-भू शत-शत… Continue reading मातृ-भू शत-शत बार प्रणाम / भगवतीचरण वर्मा
हम दीवानों की क्या हस्ती / भगवतीचरण वर्मा
हम दीवानों की क्या हस्ती, आज यहाँ कल वहाँ चले मस्ती का आलम साथ चला, हम धूल उड़ाते जहाँ चले आए बनकर उल्लास कभी, आँसू बनकर बह चले अभी सब कहते ही रह गए, अरे तुम कैसे आए, कहाँ चले किस ओर चले? मत ये पूछो, बस चलना है इसलिए चले जग से उसका कुछ… Continue reading हम दीवानों की क्या हस्ती / भगवतीचरण वर्मा
आज मानव का सुनहला प्रात है / भगवतीचरण वर्मा
आज मानव का सुनहला प्रात है, आज विस्मृत का मृदुल आघात है; आज अलसित और मादकता-भरे, सुखद सपनों से शिथिल यह गात है; मानिनी हँसकर हृदय को खोल दो, आज तो तुम प्यार से कुछ बोल दो । आज सौरभ में भरा उच्छ्वास है, आज कम्पित-भ्रमित-सा बातास है; आज शतदल पर मुदित सा झूलता, कर… Continue reading आज मानव का सुनहला प्रात है / भगवतीचरण वर्मा
बस इतना–अब चलना होगा / भगवतीचरण वर्मा
बस इतना–अब चलना होगा फिर अपनी-अपनी राह हमें। कल ले आई थी खींच, आज ले चली खींचकर चाह हमें तुम जान न पाईं मुझे, और तुम मेरे लिए पहेली थीं; पर इसका दुख क्या? मिल न सकी प्रिय जब अपनी ही थाह हमें। तुम मुझे भिखारी समझें थीं, मैंने समझा अधिकार मुझे तुम आत्म-समर्पण से… Continue reading बस इतना–अब चलना होगा / भगवतीचरण वर्मा