जयद्रथ-वध / प्रथम सर्ग / भाग १ / मैथिलीशरण गुप्त

वाचक ! प्रथम सर्वत्र ही ‘जय जानकी जीवन’ कहो,
फिर पूर्वजों के शील की शिक्षा तरंगों में बहो।
दुख, शोक, जब जो आ पड़े, सो धैर्य पूर्वक सब सहो,
होगी सफलता क्यों नहीं कर्त्तव्य पथ पर दृढ़ रहो।।
अधिकार खो कर बैठ रहना, यह महा दुष्कर्म है;
न्यायार्थ अपने बन्धु को भी दण्ड देना धर्म है।
इस तत्व पर ही कौरवों से पाण्डवों का रण हुआ,
जो भव्य भारतवर्ष के कल्पान्त का कारण हुआ।।
सब लोग हिलमिल कर चलो, पारस्परिक ईर्ष्या तजो,
भारत न दुर्दिन देखता, मचता महाभारत न जो।।
हो स्वप्नतुल्य सदैव को सब शौर्य्य सहसा खो गया,
हा ! हा ! इसी समराग्नि में सर्वस्व स्वाहा हो गया।
दुर्वृत्त दुर्योधन न जो शठता-सहित हठ ठानता,
जो प्रेम-पूर्वक पाण्डवों की मान्यता को मानता,
तो डूबता भारत न यों रण-रक्त-पारावार में,
‘ले डूबता है एक पापी नाव को मझधार में।’
हा ! बन्धुओं के ही करों से बन्धु-गण मारे गये !
हा ! तात से सुत, शिष्य से गुरु स-हठ संहारे गये।
इच्छा-रहित भी वीर पाण्डव रत हुए रण में अहो।
कर्त्तव्य के वश विज्ञ जन क्या-क्या नहीं करते कहो ?
वह अति अपूर्व कथा हमारे ध्यान देने योग्य है,
जिस विषय में सम्बन्ध हो वह जान लेने योग्य है।
अतएव कुछ आभास इसका है दिया जाता यहाँ,
अनुमान थोड़े से बहुत का है किया जाता यहाँ।।
रणधीर द्रोणाचार्य-कृत दुर्भेद्य चक्रव्यूह को,
शस्त्रास्त्र, सज्जित, ग्रथित, विस्तृत, शूरवीर समूह को,
जब एक अर्जुन के बिना पांडव न भेद कर सके,
तब बहुत ही व्याकुल हुए, सब यत्न कर करके थके।।
यों देख कर चिन्तित उन्हें धर ध्यान समरोत्कर्ष का,
प्रस्तुत हुआ अभिमन्यु रण को शूर षोडश वर्ष का।
वह वीर चक्रव्यूह-भेदने में सहज सज्ञान था,
निज जनक अर्जुन-तुल्य ही बलवान था, गुणवान था।।
‘‘हे तात् ! तजिए सोच को है काम क्या क्लेश का ?
मैं द्वार उद्घाटित करूँगा व्यूह-बीच प्रवेश का।।’’
यों पाण्डवों से कह, समर को वीर वह सज्जित हुआ,
छवि देख उसकी उस समय सुरराज भी लज्जित हुआ।।

नर-देव-सम्भव वीर वह रण-मध्य जाने के लिए,
बोला वचन निज सारथी से रथ सजाने के लिए।
यह विकट साहस देख उसका, सूत विस्मित हो गया,
कहने लगा इस भाँति फिर देख उसका वय नया-
‘‘हे शत्रुनाशन ! आपने यह भार गुरुतर है लिया,
हैं द्रोण रण-पण्डित, कठिन है व्यूह-भेदन की क्रिया।
रण-विज्ञ यद्यपि आप हैं पर सहज ही सुकुमार हैं,
सुख-सहित नित पोषित हुए, निज वंश-प्राणाधार हैं।’’
सुन सारथी की यह विनय बोला वचन वह बीर यों-
करता घनाघन गगन में निर्घोष अति गंभीर ज्यों।
‘‘हे सारथे ! हैं द्रोण क्या, देवेन्द्र भी आकर अड़े,
है खेल क्षत्रिय बालकों का व्यूह-भेदन कर लड़े।
श्रीराम के हयमेध से अपमान अपना मान के,
मख अश्व जब लव और कुश ने जय किया रण ठान के।।
अभिमन्यु षोडश वर्ष का फिर क्यों लड़े रिपु से नहीं,
क्या आर्य-वीर विपक्ष-वैभव देखकर डरते कहीं ?
सुनकर गजों का घोष उसको समझ निज अपयश –कथा,
उन पर झपटता सिंह-शिशु भी रोषकर जब सर्वथा,
फिर व्यूह भेदन के लिए अभिमन्यु उद्यत क्यों न हो,
क्य वीर बालक शत्रु की अभिमान सह सकते कहो ?
मैं सत्य कहता हूँ, सखे ! सुकुमार मत मानो मुझे,
यमराज से भी युद्ध को प्रस्तुत सदा जानो मुझे !
है और की तो बात ही क्या, गर्व मैं करता नहीं,
मामा तथा निज तात से भी समर में डरता नहीं।।

ज्यों ऊनषोडश वर्ष के राजीव लोचन राम ने,
मुनि मख किया था पूर्ण वधकर राक्षसों के सामने।
कर व्यूह-भेदन आज त्यों ही वैरियों को मार के,
निज तात का मैं हित करूँगा विमल यश विस्तार के।।’’
यों कह वचन निज सूत से वह वीर रण में मन दिए,
पहुँचा शिविर में उत्तरा से विदा लेने के लिए।
सब हाल उसने निज प्रिया से जब कहा जाकर वहाँ,
कहने लगी वह स्वपति के अति निकट आकर वहाँ-
‘‘मैं यह नहीं कहती कि रिपु से जीवितेश लड़ें नहीं,
तेजस्वियों की आयु भी देखी भला जाती कहीं ?
मैं जानती हूँ नाथ ! यह मैं मानती हूँ तथा-
उपकरण से क्या शक्ति में हा सिद्धि रहती सर्वथा।।’’
‘‘क्षत्राणियों के अर्थ भी सबसे बड़ा गौरव यही-
सज्जित करें पति-पुत्र को रण के लिए जो आप ही।
जो वीर पति के कीर्ति-पथ में विघ्न-बाधा डालतीं-
होकर सती भी वह कहाँ कर्त्तव्य अपना पालतीं ?
अपशकुन आज परन्तु मुझको हो रहे सच जानिए,
मत जाइए सम्प्रति समर में प्रर्थना यह मानिए।
जाने न दूँगी आज मैं प्रियतम तुम्हें संग्राम में,
उठती बुरी है भावनाएँ हाय ! इस हृदाम में।
है आज कैसा दिन न जाने, देव-गण अनुकूल हों;
रक्षा करें प्रभु मार्ग में जो शूल हों वे फूल हों।
कुछ राज-पाट न चाहिए, पाऊँ न क्यों मैं त्रास ही;
हे उत्तरा के धन ! रहो तुम उत्तरा के पास ही।।

कहती हुई यों उत्तरा के नेत्रजल से भर गये,
हिम के कणों से पूर्ण मानो हो गये पंकज नये।
निज प्राणपति के स्कन्ध पर रखकर वदन वह सुन्दरी,
करने लगी फिर प्रार्थना नाना प्रकार व्यथा-भरी।।
यों देखकर व्याकुल प्रिया को सान्त्वना देता हुआ,
उसका मनोहर पाणि-पल्लव हाथ में लेता हुआ,
करता हुआ वारण उसे दुर्भावना की भीति से,
कहने लगा अभिमन्यु यों प्यारे वचन अति प्रीति से-
‘‘जीवनमयी, सुखदायिनी, प्राणाधिके, प्राणप्रिये !
कातर तुम्हें क्या चित्त में इस भाँति होना चाहिये ?
हो शान्त सोचो तो भला क्या योग्य है तुमको यही।
हा ! हा ! तुम्हारी विकलता जाती नहीं मुझसे सही।।
वीर-स्नुषा तुम वीर-रमणी, वीर-गर्भा हो तथा,
आश्चर्य, जो मम रण-गमन से हो तुम्हें फिर भी व्यथा !
हो जानती बातें सभी कहना हमारा व्यर्थ है,
बदला न लेना शत्रु से कैसा अधर्म अनर्थ है ?
निज शत्रु का साहस कभी बढ़ने न देना चाहिए,
बदला समर में वैरियों से शीघ्र लेना चाहिए समुचित सदा,
वर-वीर क्षत्रिय-वंश का कर्त्तव्य है यह सर्वदा।
इन कौरवों ने हा ! हमें संताप कैसे हैं दिए,
सब सुन चुकी हो तुम इन्होंने पाप जैसे हैं किए !
फिर भी इन्हें मारे बिना हम लोग यदि जाते रहें,
तो सोच लो संसार भर के वीर हमसे क्या कहें ?

जिस पर हृदय का प्रेम होता सत्य और समग्र है,
उसके लिए चिन्तित तथा रहता सदा वह व्यग्र है।
होता इसी से है तुम्हारा चित्त चंचल हे प्रिये !
यह सोचकर सो अब तुम्हें शंकित न होना चाहिए—
रण में विजय पाकर प्रिये ! मैं शीघ्र आऊँगा यहाँ,
चिन्तित न हो मन में, न तुमको भूल जाऊँगा वहाँ !
देखो, भला भगवान ही जब हैं हमारे पक्ष में,
जीवित रहेगा कौन फिर आकर हमारे लक्ष में ?’’
यों धैर्य देकर उत्तरा को, हो विदा सद्भाव से !
वीराग्रणी अभिमन्यु पहुँचा सैन्य में अति चाव से।
स्वर्गीय साहस देख उसका सौ गुने उत्साह से,
भरने लगे सब सैनिकों के हृदय हर्ष-प्रवाह से।।
फिर पाण्डवों के मध्य में अति भव्य निज रथ पर चढ़ा,
रणभूमि में रिपु सैन्य सम्मुख वह सुभद्रा सुत बढ़ा।
पहले समय में ज्यों सुरों के मध्य में सजकर भले;
थे तारकासुर मारने गिरिनन्दिनी-नन्दन चले।।
वाचक ! विचारो तो जरा उस समय की अद्भुत छटा
कैसी अलौकिक घिर रही है शूरवीरों की घटा।
दुर्भेद्य चक्रव्यूह सम्मुख धार्तराष्ट्र रचे खड़े,
अभिमन्यु उसके भेदने को हो रहे आतुर बड़े।।
तत्काल ही दोनों दलों में घोर रण होने लगा,
प्रत्येक पल में भूमि पर वर वीर-गण सोने लगा !
रोने लगीं मानों दिशाएँ हो पूर्ण रण-घोष से,
करने लगे आघात सम्मुख शूर-सैनिक रोष से।।
इस युद्ध में सौभद्र ने जो की प्रदर्शित वीरता,
अनुमान से आती नहीं उसकी अगम गम्भीरता।
जिस धीरता से शत्रुओं का सामना उसने किया,
असमर्थ हो उसके कथन में मौन वाणी ले लिया।
करता हुआ कर-निकर दुर्द्धर सृष्टि के संहार को,
कल्पान्त में सन्तप्त करता सूर्य ज्यों संसार को-
सब ओर त्यों ही छोड़कर जिन प्रखरतर शर-जाल को,
करने लगा वह वीर व्याकुल शत्रु-सैन्य विशाल को !
शर खींच उसने तूण से कब किधर सन्धाना उन्हें;
बस बिद्ध होकर ही विपक्षी वृन्द ने जाना उन्हें।
कोदण्ड कुण्डल-तुल्य ही उसका वहाँ देखा गया,
अविराम रण करता हुआ वह राम सम लेखा गया।
कटने लगे अगणित भटों के रण्ड-मुण्ड जहाँ तहाँ,
गिरने लगे कटकर तथा कर-पद सहस्त्रों के वहाँ।
केवल कलाई ही कौतूहल-वश किसी की काट दी,
क्षण मात्र में ही अरिगणों से भूमि उसने पाट दी।
करता हुआ वध वैरियों का वैर शोधन के लिए,
रण-मध्य वह फिरने लगा अति दिव्यद्युति धारण किए।
उस काल सूत सुमित्र के रथ हाँकने की रीति से,
देखा गया वह एक ही दस-बीस-सा अति भीति से।
उस काल जिस जिस ओर वह संग्राम करने को क्या,
भगते हुए अरि-वृन्द से मैदान खाली हो गया !
रथ-पथ कहीं भी रुद्ध उसका दृष्टि में आया नहीं;
सम्मुख हुआ जो वीर वह मारा गया तत्क्षण वहीं।

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