खेलूँगी कभी न होली / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”

खेलूँगी कभी न होली उससे जो नहीं हमजोली । यह आँख नहीं कुछ बोली, यह हुई श्याम की तोली, ऐसी भी रही ठठोली, गाढ़े रेशम की चोली- अपने से अपनी धो लो, अपना घूँघट तुम खोलो, अपनी ही बातें बोलो, मैं बसी पराई टोली । जिनसे होगा कुछ नाता, उनसे रह लेगा माथा, उनसे हैं… Continue reading खेलूँगी कभी न होली / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”

ख़ून की होली जो खेली / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”

युवकजनों की है जान ; ख़ून की होली जो खेली । पाया है लोगों में मान, ख़ून की होली जो खेली । रँग गये जैसे पलाश; कुसुम किंशुक के, सुहाए, कोकनद के पाए प्राण, ख़ून की होली जो खेली । निकले क्या कोंपल लाल, फाग की आग लगी है, फागुन की टेढ़ी तान, ख़ून की… Continue reading ख़ून की होली जो खेली / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”

मार दी तुझे पिचकारी / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”

मार दी तुझे पिचकारी, कौन री, रँगी छबि यारी ? फूल -सी देह,-द्युति सारी, हल्की तूल-सी सँवारी, रेणुओं-मली सुकुमारी, कौन री, रँगी छबि वारी ? मुसका दी, आभा ला दी, उर-उर में गूँज उठा दी, फिर रही लाज की मारी, मौन री रँगी छबि प्यारी। निराला जी का यह नवगीत इंदौर से प्रकाशित मासिक पत्रिका… Continue reading मार दी तुझे पिचकारी / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”

नयनों के डोरे लाल-गुलाल भरे / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”

नयनों के डोरे लाल-गुलाल भरे, खेली होली ! जागी रात सेज प्रिय पति सँग रति सनेह-रँग घोली, दीपित दीप, कंज छवि मंजु-मंजु हँस खोली- मली मुख-चुम्बन-रोली । प्रिय-कर-कठिन-उरोज-परस कस कसक मसक गई चोली, एक-वसन रह गई मन्द हँस अधर-दशन अनबोली- कली-सी काँटे की तोली । मधु-ऋतु-रात,मधुर अधरों की पी मधु सुध-बुध खोली, खुले अलक, मुँद… Continue reading नयनों के डोरे लाल-गुलाल भरे / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”

बापू, तुम मुर्गी खाते यदि… / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”

बापू, तुम मुर्गी खाते यदि तो क्या भजते होते तुमको ऐरे-ग़ैरे नत्थू खैरे – ? सर के बल खड़े हुए होते हिंदी के इतने लेखक-कवि? बापू, तुम मुर्गी खाते यदि तो लोकमान्य से क्या तुमने लोहा भी कभी लिया होता? दक्खिन में हिंदी चलवाकर लखते हिंदुस्तानी की छवि, बापू, तुम मुर्गी खाते यदि? बापू, तुम… Continue reading बापू, तुम मुर्गी खाते यदि… / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”

कुत्ता भौंकने लगा / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”

आज ठंडक अधिक है। बाहर ओले पड़ चुके हैं, एक हफ़्ता पहले पाला पड़ा था– अरहर कुल की कुल मर चुकी थी, हवा हाड़ तक बेध जाती है, गेहूँ के पेड़ ऎंठे खड़े हैं, खेतीहरों में जान नहीं, मन मारे दरवाज़े कौड़े ताप रहे हैं एक दूसरे से गिरे गले बातें करते हुए, कुहरा छाया… Continue reading कुत्ता भौंकने लगा / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”

गर्म पकौड़ी / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”

गर्म पकौड़ी- ऐ गर्म पकौड़ी, तेल की भुनी नमक मिर्च की मिली, ऐ गर्म पकौड़ी ! मेरी जीभ जल गयी सिसकियां निकल रहीं, लार की बूंदें कितनी टपकीं, पर दाढ़ तले दबा ही रक्‍खा मैंने कंजूस ने ज्‍यों कौड़ी, पहले तूने मुझ को खींचा, दिल ले कर फिर कपड़े-सा फींचा, अरी, तेरे लिए छोड़ी बम्‍हन… Continue reading गर्म पकौड़ी / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”

प्रपात के प्रति / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”

अंचल के चंचल क्षुद्र प्रपात ! मचलते हुए निकल आते हो; उज्जवल! घन-वन-अंधकार के साथ खेलते हो क्यों? क्या पाते हो ? अंधकार पर इतना प्यार, क्या जाने यह बालक का अविचार बुद्ध का या कि साम्य-व्यवहार ! तुम्हारा करता है गतिरोध पिता का कोई दूत अबोध- किसी पत्थर से टकराते हो फिरकर ज़रा ठहर… Continue reading प्रपात के प्रति / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”

तुम और मैं / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”

तुम तुंग – हिमालय – श्रृंग और मैं चंचल-गति सुर-सरिता। तुम विमल हृदय उच्छवास और मैं कांत-कामिनी-कविता। तुम प्रेम और मैं शान्ति, तुम सुरा – पान – घन अन्धकार, मैं हूँ मतवाली भ्रान्ति। तुम दिनकर के खर किरण-जाल, मैं सरसिज की मुस्कान, तुम वर्षों के बीते वियोग, मैं हूँ पिछली पहचान। तुम योग और मैं… Continue reading तुम और मैं / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”

वे किसान की नयी बहू की आँखें / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”

नहीं जानती जो अपने को खिली हुई– विश्व-विभव से मिली हुई,– नहीं जानती सम्राज्ञी अपने को,– नहीं कर सकीं सत्य कभी सपने को, वे किसान की नयी बहू की आँखें ज्यों हरीतिमा में बैठे दो विहग बन्द कर पाँखें; वे केवल निर्जन के दिशाकाश की, प्रियतम के प्राणों के पास-हास की, भीरु पकड़ जाने को… Continue reading वे किसान की नयी बहू की आँखें / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”