उदबोधन / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”

गरज गरज घन अंधकार में गा अपने संगीत, बन्धु, वे बाधा-बन्ध-विहीन, आखों में नव जीवन की तू अंजन लगा पुनीत, बिखर झर जाने दे प्राचीन। बार बार उर की वीणा में कर निष्ठुर झंकार उठा तू भैरव निर्जर राग, बहा उसी स्वर में सदियों का दारुण हाहाकार संचरित कर नूतन अनुराग। बहता अन्ध प्रभंजन ज्यों,… Continue reading उदबोधन / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”

रेखा / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”

यौवन के तीर पर प्रथम था आया जब श्रोत सौन्दर्य का, वीचियों में कलरव सुख चुम्बित प्रणय का था मधुर आकर्षणमय, मज्जनावेदन मृदु फूटता सागर में। वाहिनी संसृति की आती अज्ञात दूर चरण-चिन्ह-रहित स्मृति-रेखाएँ पारकर, प्रीति की प्लावन-पटु, क्षण में बहा लिया— साथी मैं हो गया अकूल का, भूल गया निज सीमा, क्षण में अज्ञानता… Continue reading रेखा / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”

आवेदन / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”

(गीत) फिर सवाँर सितार लो! बाँध कर फिर ठाट, अपने अंक पर झंकार दो! शब्द के कलि-कल खुलें, गति-पवन-भर काँप थर-थर मीड़-भ्रमरावलि ढुलें, गीत-परिमल बहे निर्मल, फिर बहार बहार हो! स्वप्न ज्यों सज जाय यह तरी, यह सरित, यह तट, यह गगन, समुदाय। कमल-वलयित-सरल-दृग-जल हार का उपहार हो!

विनय / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”

(गीत) पथ पर मेरा जीवन भर दो, बादल हे अनन्त अम्बर के! बरस सलिल, गति ऊर्मिल कर दो! तट हों विटप छाँह के, निर्जन, सस्मित-कलिदल-चुम्बित-जलकण, शीतल शीतल बहे समीरण, कूजें द्रुम-विहंगगण, वर दो! दूर ग्राम की कोई वामा आये मन्दचरण अभिरामा, उतरे जल में अवसन श्यामा, अंकित उर-छबि सुन्दरतर हो!

वनबेला / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”

वर्ष का प्रथम पृथ्वी के उठे उरोज मंजु पर्वत निरुपम किसलयों बँधे, पिक-भ्रमर-गुंज भर मुखर प्राण रच रहे सधे प्रणय के गान, सुनकर सहसा, प्रखर से प्रखर तर हुआ तपन-यौवन सहसा; ऊर्जित, भास्वर पुलकित शत शत व्याकुल कर भर चूमता रसा को बार बार चुम्बित दिनकर क्षोभ से, लोभ से, ममता से, उत्कण्ठा से, प्रणय… Continue reading वनबेला / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”

गाता हूँ गीत मैं तुम्हें ही सुनाने को / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”

गाता हूँ गीत मैं तुम्हें ही सुनाने को; भले और बुरे की, लोकनिन्दा यश-कथा की नहीं परवाह मुझे; दास तुम दोनों का सशक्तिक चरणों में प्रणाम हैं तुम्हारे देव! पीछे खड़े रहते हो, इसी लिये हास्य-मुख देखता हूँ बार बार मुड़ मुड़ कर। बार बार गाता मैं भय नहीं खाता कभी, जन्म और मृत्यु मेरे… Continue reading गाता हूँ गीत मैं तुम्हें ही सुनाने को / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”

नाचे उस पर श्यामा / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”

फूले फूल सुरभि-व्याकुल अलि गूँज रहे हैं चारों ओर जगतीतल में सकल देवता भरते शशिमृदु-हँसी-हिलोर। गन्ध-मन्द-गति मलय पवन है खोल रही स्मृतियों के द्वार, ललित-तरंग नदी-नद सरसी, चल-शतदल पर भ्रमर-विहार। दूर गुहा में निर्झरिणी की तान-तरंगों का गुंजार, स्वरमय किसलय-निलय विहंगों के बजते सुहाग के तार। तरुण-चितेरा अरुण बढा कर स्वर्ण-तूलिका-कर सुकुमार पट-पृथिवी पर रखता… Continue reading नाचे उस पर श्यामा / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”

ठूँठ / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”

ठूँठ यह है आज! गई इसकी कला, गया है सकल साज! अब यह वसन्त से होता नहीं अधीर, पल्लवित झुकता नहीं अब यह धनुष-सा, कुसुम से काम के चलते नहीं हैं तीर, छाँह में बैठते नहीं पथिक आह भर, झरते नहीं यहाँ दो प्रणयियों के नयन-तीर, केवल वृद्ध विहग एक बैठता कुछ कर याद।

कविता के प्रति / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”

ऐ, कहो, मौन मत रहो! सेवक इतने कवि हैं–इतना उपचार– लिये हुए हैं दैनिक सेवा का भार; धूप, दीप, चन्दन, जल, गन्ध-सुमन, दूर्वादल, राग-भोग, पाठ-विमल मन्त्र, पटु-करतल-गत मृदंग, चपल नृत्य, विविध भंग, वीणा-वादित सुरंग तन्त्र। गूँज रहा मन्दर-मन्दिर का दृढ़ द्वार, वहाँ सर्व-विषय-हीन दीन नमस्कार दिया भू-पतित हो जिसने, क्या वह भी कवि? सत्य कहो,… Continue reading कविता के प्रति / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”

सखा के प्रति / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”

रोग स्वास्थ्य में, सुख में दुख, है अन्धकार में जहाँ प्रकाश, शिशु के प्राणों का साक्षी है रोदन जहाँ वहाँ क्या आश सुख की करते हो तुम, मतिमन?–छिड़ा हुआ है रण अविराम घोर द्वन्द्व का; यहाँ पुत्र को पिता भी नहीं देता स्थान। गूँज रहा रव घोर स्वार्थ का, यहाँ शान्ति का मुक्ताकार कहाँ? नरक… Continue reading सखा के प्रति / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”