रेखा / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”

यौवन के तीर पर प्रथम था आया जब
श्रोत सौन्दर्य का,
वीचियों में कलरव सुख चुम्बित प्रणय का
था मधुर आकर्षणमय,
मज्जनावेदन मृदु फूटता सागर में।
वाहिनी संसृति की
आती अज्ञात दूर चरण-चिन्ह-रहित
स्मृति-रेखाएँ पारकर,
प्रीति की प्लावन-पटु,
क्षण में बहा लिया—
साथी मैं हो गया अकूल का,
भूल गया निज सीमा,
क्षण में अज्ञानता को सौंप दिये मैंने प्राण
बिना अर्थ,–प्रार्थना के।
तापहर हृदय वेग
लग्न एक ही स्मृति में;
कितना अपनाव?—
प्रेमभाव बिना भाषा का,
तान-तरल कम्पन वह बिना शब्द-अर्थ की।

उस समय हृदय में
जो कुछ वह आता था,
हृदय से चुपचाप
प्रार्थना के शब्दों में
परिचय बिना भी यदि
कोई कुछ कहता था,
अपनाता मैं उसे।
चिर-कालिक कालिमा—
जड़ता जीवन की चिर-संचित थी दूर हुई।
स्वच्छ एक दर्पण—
प्रतिबिम्बों की ग्रहण-शक्ति सम्पूर्ण लिये हुए;
देखता मैं प्रकृति चित्र,–
अपनी ही भावना की छायाएं चिर-पोषित।

प्रथम जीवन में
जीवन ही मिला मुझे, चारों ओर।
आती समीर
जैसे स्पर्श कर अंग एक अज्ञात किसी का,
सुरभि सुमन्द में हो जैसे अंगराग-गंध,
कुसुमों में चितवन अतीत की स्मृति-रेखा—
परिचित चिर-काल की,
दूर चिर-काल से;
विस्मृति से जैसे खुल आई हो कोई स्मृति
ऐसे ही प्रकृति यह
हरित निज छाया में
कहती अन्तर की कथा
रह जाती हृदय में।

बीते अनेक दिन
बहते प्रिय-वक्ष पर ऐसे ही निरुपाय
बहु-भाव-भंगों की यौवन-तरंगों में।
निरुद्देश मेरे प्राण
दूरतक फैले उस विपुल अज्ञान में
खोजते थे प्राणों को,
जड़ में ज्यों वीत-राग चेतन को खोजते।
अन्त में
मेरी ध्रुवतारा तुम
प्रसरित दिगन्त से
अन्त में लाई मुझे
सीमा में दीखी असीमता—
एक स्थिर ज्योति में
अपनी अबाधता—
परिचय निज पथ का स्थिर।

वक्ष पर धरा के जब
तिमिर का भार गुरु
पीड़ित करता है प्राण,
आते शशांक तब हृदय पर आप ही,
चुम्बन-मधु ज्योति का, अन्धकार हर लेता।
छाया के स्पर्श से
कल्पित सुख मेरा भी प्राणों से रहित था,–
कल्पना ही एक
दूर सत्य के आलोक से,–
निर्जन-प्रियता में था मौन-दु:ख साथी बिना।

प्रतिमा सौन्दर्य की
हृदय के मंच पर
आई न थी तब भी,
पत्र-पुष्प-अर्ध्य ही
संचित था हो रहा
आगम-प्रतीक्षा में,–
स्वागत की वन्दना ही
सीखी थी हृदय ने।
उत्सुकता वेदना,
भीति, मौन, प्रार्थना
नयनों की नयनों से,
सिंचन सुहाग—प्रेम,
दृढ़ता चिबुक की,
अधरों की विह्वलता,
भ्रू-कुटिलता, सरल हास,
वेदना कण्ठ में,
मृदुता हृदय में,
काठिन्य वक्षस्थल में,
हाथों में निपुणता,
शैथिल्य चरणों में,
दीखी नहीं तब तक
एक ही मूर्ति में
तन्मय असीमता।
सृष्टि का मध्यकाल मेरे लिये।
तृष्णा की जागृति का
मूर्त राग नयनों में।
हुताशन विश्व के शब्द-रस-रूप-गन्ध
दीपक-पतंग-से अन्ध थे आ रहे
एक आकर्षण में
और यह प्रेम था!
तृष्णा ही थी सजग
मेरे प्रतिरोम में।
रसना रस-नाम-रहित
किन्तु रस-ग्राहिका!
भोग—वह भोग था,
शब्दों की आड़ में
शब्द-भेद प्राणों का—
घोर तम सन्ध्या की स्वर्ण-किरण-दीप्ति में!
शत-शत वे बन्धन ही
नन्दन-स्वरूप-से आ
सम्मुख खड़े थे!–
स्मितनयन, चंचल, चयनशील,
अति-अपनाव-मृदु भाव खोले हुए!
मन का जड़त्व था,
दुर्बल वह धारणा चेतन की
मूर्च्छित लिपटती थी जड़ी से बारम्बार।

सब कुछ तो था असार
अस्तु, वह प्यार?—
सब चेतन जो देखता,
स्पर्श में अनुभव—रोमांच,
हर्ष रूप में—परिचय,
विनोद; सुख गन्ध में,
रस में मज्जनानन्द,
शब्दों में अलंकार,
खींचा उसीने था हृदय यह,
जड़ों में चेतन-गति कर्षण मिलता कहां?

पाया आधार
भार-गुरुता मिटाने को,
था जो तरंगों में बहता हुआ,
कल्पना में निरवलम्ब,
पर्यटक एक अटवी का अज्ञात,
पाया किरण-प्रभात—
पथ उज्जवल, सहर्ष गति।
केन्द्र को आ मिले
एक ही तत्व के,
सृष्टि के कारण वे,
कविता के काम-बीज।
कौन फिर फिर जाता?
बँधा हुआ पाश में ही
सोचता जो सुख-मुक्ति कल्पना के मार्ग से,
स्थित भी जो चलता है,
पार करता गिरि-श्रृंग, सागर-तरंग,
अगम गहन अलंध्य पथ,
लावण्यमय सजल,
खोला सहृदय स्नेह।

आज वह याद है वसन्त,
जब प्रथम दिगन्तश्री
सुरभि धरा के आकांक्षित हृदय की,
दान प्रथम हृदय को
था ग्रहण किया हृदय ने;
अज्ञात भावना,
सुख चिर-मिलन का,
हल किया प्रश्न जब सहज एकत्व का
प्राथमिक प्रकृति ने,
उसी दिन कल्पना ने
पाई सजीवता।
प्रथम कनकरेखा प्राची के भाल पर—
प्रथम श्रृंगार स्मित तरुणी वधू का,
नील गगनविस्तार केश,
किरणोज्जवल नयन नत,
हेरती पृथ्वी को।

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