पर आंखें नहीं भरीं / शिवमंगल सिंह ‘सुमन’

कितनी बार तुम्हें देखा पर आंखें नहीं भरीं सीमित उर में चिर असीम सौन्दर्य समा न सका बीन मुग्ध बेसुथ कुरंग मन रोके नहीं रूका यों तो कई बार पी पी कर जी भर गया छका एक बूंद थी किन्तु कि जिसकी तृष्णा नहीं मरी कितनी बार तुम्हें देखा पर आंखें नहीं भरीं कई बार… Continue reading पर आंखें नहीं भरीं / शिवमंगल सिंह ‘सुमन’

रणभेरी / शिवमंगल सिंह ‘सुमन’

माँ कब से खड़ी पुकार रही पुत्रो निज कर में शस्त्र गहो सेनापति की आवाज़ हुई तैयार रहो , तैयार रहो आओ तुम भी दो आज विदा अब क्या अड़चन क्या देरी लो आज बज उठी रणभेरी . पैंतीस कोटि लडके बच्चे जिसके बल पर ललकार रहे वह पराधीन बिन निज गृह में परदेशी की… Continue reading रणभेरी / शिवमंगल सिंह ‘सुमन’

मिट्टी की महिमा / शिवमंगल सिंह ‘सुमन’

निर्मम कुम्हार की थापी से कितने रूपों में कुटी-पिटी, हर बार बिखेरी गई, किंतु मिट्टी फिर भी तो नहीं मिटी! आशा में निश्छल पल जाए, छलना में पड़ कर छल जाए सूरज दमके तो तप जाए, रजनी ठुमकी तो ढल जाए, यों तो बच्चों की गुडिया सी, भोली मिट्टी की हस्ती क्या आँधी आये तो… Continue reading मिट्टी की महिमा / शिवमंगल सिंह ‘सुमन’

चल रही उसकी कुदाली / शिवमंगल सिंह ‘सुमन’

हाथ हैं दोनों सधे-से गीत प्राणों के रूँधे-से और उसकी मूठ में, विश्वास जीवन के बँधे-से धकधकाती धरणि थर-थर उगलता अंगार अम्बर भुन रहे तलुवे, तपस्वी-सा खड़ा वह आज तनकर शून्य-सा मन, चूर है तन पर न जाता वार खाली चल रही उसकी कुदाली (२) वह सुखाता खून पर-हित वाह रे साहस अपिरिमत युगयुगों से… Continue reading चल रही उसकी कुदाली / शिवमंगल सिंह ‘सुमन’

मैं अकेला और पानी बरसता है / शिवमंगल सिंह ‘सुमन’

मैं अकेला और पानी बरसता है प्रीती पनिहारिन गई लूटी कहीं है, गगन की गगरी भरी फूटी कहीं है, एक हफ्ते से झड़ी टूटी नहीं है, संगिनी फिर यक्ष की छूटी कहीं है, फिर किसी अलकापुरी के शून्य नभ में कामनाओं का अँधेरा सिहरता है। मोर काम-विभोर गाने लगा गाना, विधुर झिल्ली ने नया छेड़ा… Continue reading मैं अकेला और पानी बरसता है / शिवमंगल सिंह ‘सुमन’

अंगारे और धुआँ / शिवमंगल सिंह ‘सुमन’

इतने पलाश क्यों फूट पड़े है एक साथ इनको समेटने को इतने आँचल भी तो चाहिए, ऐसी कतार लौ की दिन-रात जलेगी जो किस-किस की पुतली से क्या-क्या कहिए। क्या आग लग गई है पानी में डालों पर प्यासी मीनों की भीड़ लग गई है, नाहक इतनी भूबरि धरती ने उलची है फागुन के स्वर… Continue reading अंगारे और धुआँ / शिवमंगल सिंह ‘सुमन’

सहमते स्वर-5 / शिवमंगल सिंह ‘सुमन’

मैं राजदरबार से चला आया अपनी ही नज़रों में गिरने से बच गया। नए माहौल में भटकना भला लगता है सुविधा का भरण क्षण तो सड़ा-गला लगता है उनकी क्या करता हाँ-हज़ूरी जो ख़ुद मोहताज हैं

सहमते स्वर-3 / शिवमंगल सिंह ‘सुमन’

आज मैंने सुई में डोरा डाल लिया उतनी ही बड़ी सिद्धि जितनी जग जाती एक कविता लिख लेने में। विगत अड़तालीस वर्षों से तुमने मुझे ऐसा निकम्मा बना दिया कि कुरता-कमीज़ में बटन तक टाँकने का सीखा सलीका नहीं। कुछ भी करो हँसने का मौक़ा तो न दो औरों को। तुम्हें ही दोषी ठहराएंगी पीढ़ियाँ… Continue reading सहमते स्वर-3 / शिवमंगल सिंह ‘सुमन’

सहमते स्वर-2 / शिवमंगल सिंह ‘सुमन’

जीवन का नया दौर शुरू हुआ बची-खुची साँसों को जीने की बेचैनी ख़ूब ग्रह हैं मेरे भी एक दिन काशी छोड़ मालवा जा पहुँचा था महामना मालवीय का कर्ज़ा चुकाने को, लखनऊ बसने की बात स्वप्न में भी नहीं सोची, बचपन में सुनता था परदादा चंदिका सिंह यहीं कहीं खेत रहे भारत के पहले स्वतन्त्रता-संग्राम… Continue reading सहमते स्वर-2 / शिवमंगल सिंह ‘सुमन’