आषाढ़ का पहला दिवस / शिवमंगल सिंह ‘सुमन’

करता विवश उमड़ी घटा को देखकर चूमूँ लहराते केश को पी लूँ तपन, सीझूँ सपन गदरा उठूँ इतरा उठूँ पातीम्बरी आकाश में उलझी हुई नीलाम्बरी के छोर-सा, टपकूँ निबौरी-सा निपट थिरकूँ विसुध वन-मोर-सा, बौछार के उल्लास में सोंधी धारा की गंध को पी लूँ तृषित गजराज-सा झूमूँ सहज हर सल्लकी औ’ शाल की मदविह्वला नत… Continue reading आषाढ़ का पहला दिवस / शिवमंगल सिंह ‘सुमन’

इनको चूमो / शिवमंगल सिंह ‘सुमन’

कीचड़-कालिख से सने हाथ इनको चूमो सौ कामिनियों के लोल कपोलों से बढ़कर जिसने चूमा दुनिया को अन्न खिलाया है आतप-वर्षा-पाले से सदा बचाया है। श्रम-सीकर से लथपथ चेहरे इनको चूमो गंगा-जमुना की लोल-लहरियों से बढ़कर माँ-बहनों की लज्जा जिनके बल पर रक्षित बुन चीर द्रौपदी का हर बार बढाया है। कुश-कंटक से क्षत-विक्षत पग… Continue reading इनको चूमो / शिवमंगल सिंह ‘सुमन’

ठहराव / शिवमंगल सिंह ‘सुमन’

तुम तो यहीं ठहर गये ठहरे तो किले बान्धो मीनारें गढ़ो उतरो चढ़ो उतरो चढ़ो कल तक की दूसरों की आज अपनी रक्षा करों, मुझको तो चलना है अन्धेरे में जलना है समय के साथ-साथ ढलना है इसलिये मैने कभी बान्धे नहीं परकोटे साधी नहीं सरहदें औ’ गढ़ी नहीं मीनारें जीवन भर मुक्त बहा सहा… Continue reading ठहराव / शिवमंगल सिंह ‘सुमन’