नागार्जुन सराय / ऋतुराज

महानता के आश्रयस्थल यदि होते हों तो इसी तरह विनम्र और खामोश रहकर प्रतिमाएँ अपना स्नेह प्रकट करती रहेंगी देखो न, यह पूँछ-उठौनी नन्हीं चिड़िया किस बेफिक्री से बैठी है नागार्जुन के सिर पर अरी, तू जानती है इन्हें? कब तेरा इनसे परिचय हुआ? बाबा तो हैं पर क्या तेरी पूँछ को पता है स्पर्श… Continue reading नागार्जुन सराय / ऋतुराज

जब हम नहीं रहेंगे / ऋतुराज

सड़क का कर्ज था शिरीषों पर निर्जन पगडंडी के बजाए साफ-सुथरा रास्ता सब के लिए और लो, जो तुम बीच में अड़े हो अपना सर्वस्व दे दो दूसरों के लिए इससे पहले कि धड़ अलग होंगे फूटने दो फलियाँ फैलने दो बीज कि चारों तरफ शिरीष-संतति रहे भले ही हम न हों न हो हमारा… Continue reading जब हम नहीं रहेंगे / ऋतुराज

छात्रावास में कविता-पाठ / ऋतुराज

कोई पच्चीस युवा थे वहाँ सीटी बजी और सबके सब एकत्रित हो गए कौन कहता है कि वे कुछ भी सुनना-समझना नहीं चाहते वे चाहते हैं दुरुस्त करना समय की पीछे चलती घड़ी को धक्का देना चाहते हैं लिप्साओं के पहाड़ पर चढ़े सत्तासीनों को नीचे कहाँ हुई हिंसा? किसने विद्रोह किया झूठ से? भ्रम… Continue reading छात्रावास में कविता-पाठ / ऋतुराज

कभी इतनी धनवान मत बनना / ऋतुराज

कभी इतनी धनवान मत बनना कि लूट ली जाओ सस्ते स्कर्ट की प्रकट भव्यता के कारण हांग्जो की गुड़िया के पीछे वह आया होगा चुपचाप बाईं जेब से केवल दो अंगुलियों की कलाकारी से बटुआ पार कर लिया होगा सुंदरता के बारे में उसका ज्ञान मात्र वित्तीय था एक लड़की का स्पर्श क्या होता है… Continue reading कभी इतनी धनवान मत बनना / ऋतुराज

किशोरी अमोनकर / ऋतुराज

न जाने किस बात पर हँस रहे थे लोग प्रेक्षागृह खचाखच भरा था जनसंख्या-बहुल देश में यह कोई अनहोनी घटना नहीं थी प्रतीक्षा थी विलंबित आलाप की तरह कब शुरू होगा स्थायी और कब अंतरा कब भूप की सवारी निकालेंगी किशोरी जी शुद्ध गंधार समय की पीठ चीरकर अंतरिक्ष में विलीन हो जाएगा फिर लौटेगा… Continue reading किशोरी अमोनकर / ऋतुराज

एक बार में सब कुछ / ऋतुराज

कुछ भी छोड़कर मत जाओ इस संसार में अपना नाम तक भी वे अपने शोधार्थियों के साथ कुछ ऐसा अनुचित करेंगे कि तुम्हारे नाम की संलिप्तता उनमें नज़र आएगी कुछ भी छोड़ना होता है जब परछाई को या आत्मा जैसी हवा को तो वह एक सूखे पत्ते को इस तरह उलट-पुलट कर देती है जैसे… Continue reading एक बार में सब कुछ / ऋतुराज

माँ का दुख / ऋतुराज

कितना प्रामाणिक था उसका दुख लड़की को कहते वक़्त जिसे मानो उसने अपनी अंतिम पूंजी भी दे दी लड़की अभी सयानी थी इतनी भोली सरल कि उसे सुख का आभास तो होता था पर नहीं जानती थी दुख बाँचना पाठिका थी वह धुंधले प्रकाश में कुछ तुकों और लयबद्ध पंक्तियों की माँ ने कहा पानी… Continue reading माँ का दुख / ऋतुराज

दर्शन / ऋतुराज

आदमी के बनाए हुए दर्शन में दिपदिपाते हैं सर्वशक्तिमान उनकी साँवली बड़ी आँखों में कुछ प्रेम, कुछ उदारता, कुछ गर्वीलापन है भव्य वह भी कम नही है जो इंजीनियर है इस विराट वास्तुशिल्प का दलित की दृष्टि में कौतुक है दोनों पक्षों कि लिए यानी प्रभु की सत्ता और बुर्जुआ के उदात्त के लिए एक… Continue reading दर्शन / ऋतुराज

राजधानी में / ऋतुराज

अचानक सब कुछ हिलता हुआ थम गया है भव्य अश्वमेघ के संस्कार में घोड़ा ही बैठ गया पसरकर अब कहीं जाने से क्या लाभ ? तुम धरती स्वीकार करते हो विजित करते हो जनपद पर जनपद लेकिन अज्ञान,निर्धनता और बीमारी के ही तो राजा हो लौट रही हैं सुहागिन स्त्रियाँ गीत नहीं कोई किस्सा मज़ाक सुना… Continue reading राजधानी में / ऋतुराज

शरीर / ऋतुराज

सारे रहस्य का उद्घाटन हो चुका और तुम में अब भी उतनी ही तीव्र वेदना है आनंद के अंतिम उत्‍कर्ष की खोज के समय की वेदना असफल चेतना के निरवैयक्तिक स्पर्शों की वेदना आयु के उदास निर्बल मुख की विवशता की वेदना अभी उस प्रथम दिन के प्राण की स्मृति शेष है और बीच के… Continue reading शरीर / ऋतुराज