अरी ओ रसवन्ती सुकुमार ! लिये क्रीड़ा-वंशी दिन-रात पलातक शिशु-सा मैं अनजान, कर्म के कोलाहल से दूर फिरा गाता फूलों के गान। कोकिलों ने सिखलाया कभी माधवी-कु़ञ्नों का मधु राग, कण्ठ में आ बैठी अज्ञात कभी बाड़व की दाहक आग। पत्तियों फूलों की सुकुमार गयीं हीरे-से दिल को चीर, कभी कलिकाओं के मुख देख अचानक… Continue reading रसवन्ती (कविता) / रामधारी सिंह “दिनकर”
Category: Ramdhari Singh Dinkar
वैभव की समाधि पर / रामधारी सिंह “दिनकर”
हँस उठी कनक-प्रान्तर में जिस दिन फूलों की रानी, तृण पर मैं तुहिन-कणों की पढ़ता था करुण कहानी। थी बाट पूछती कोयल ऋतुपति के कुसुम-नगर की, कोई सुधि दिला रहा था तब कलियों को पतझर की। प्रिय से लिपटी सोई थी तू भूल सकल सुधि तन की, तब मौत साँस में गिनती थी घडियाँ मधु-जीवन… Continue reading वैभव की समाधि पर / रामधारी सिंह “दिनकर”
समाधि के प्रदीप से / रामधारी सिंह “दिनकर”
समाधि के प्रदीप से तुम जीवन की क्षण-भंगुरता के सकरुण आख्यान! तुम विषाद की ज्योति! नियति की व्यंग्यमयी मुस्कान! अरे, विश्व-वैभव के अभिनय के तुम उपसंहार! मन-ही-मन इस प्रलय-सेज पर गाते हो क्या गान? तुम्हारी इस उदास लौ-बीच मौन रोता किसका इतिहास? कौन छिप क्षीण शिखा में दीप! सृष्टि का करता है उपहास? इस धूमिल… Continue reading समाधि के प्रदीप से / रामधारी सिंह “दिनकर”
संजीवन-घन दो / रामधारी सिंह “दिनकर”
संजीवन-घन दो जो त्रिकाल-कूजित संगम है, वह जीवन-क्षण दो, मन-मन मिलते जहाँ देवता! वह विशाल मन दो। माँग रहा जनगण कुम्हलाया बोधिवृक्ष की शीतल छाया, सिरजा सुधा, तृषित वसुधा को संजीवन-घन दो। मन-मन मिलते जहाँ देवता! वह विशाल मन दो। तप कर शील मनुज का साधें, जग का हृदय हृदय से बाँध, सत्य हेतु निष्ठा… Continue reading संजीवन-घन दो / रामधारी सिंह “दिनकर”
सुन्दरता और काल / रामधारी सिंह “दिनकर”
सुन्दरता और काल बाग में खिला था कहीं अल्हड़ गुलाब एक, गरम लहू था, अभी यौवन के दिन थे; ताना मार हँसा एक माली के बुढ़ापे पर, “लटक रहे हैं कब्र-बीच पाँव इसके।” चैत की हवा में खूब खिलता गया गुलाब, बाकी रहा कहीं भी कसाव नहीं तन में। माली को निहार बोला फिर यों… Continue reading सुन्दरता और काल / रामधारी सिंह “दिनकर”
याचना / रामधारी सिंह “दिनकर”
याचना प्रियतम! कहूँ मैं और क्या? शतदल, मृदुल जीवन-कुसुम में प्रिय! सुरभि बनकर बसो। घन-तुल्य हृदयाकाश पर मृदु मन्द गति विचरो सदा। प्रियतम! कहूँ मैं और क्या? दृग बन्द हों तब तुम सुनहले स्वप्न बन आया करो, अमितांशु! निद्रित प्राण में प्रसरित करो अपनी प्रभा। प्रियतम! कहूँ मैं और क्या? उडु-खचित नीलाकाश में ज्यों हँस… Continue reading याचना / रामधारी सिंह “दिनकर”
विधवा / रामधारी सिंह “दिनकर”
विधवा जीवन के इस शून्य सदन में जलता है यौवन-प्रदीप; हँसता तारा एकान्त गगन में। जीवन के इस शून्य सदन में। पल्लव रहा शुष्क तरु पर हिल, मरु में फूल चमकता झिलमिल, ऊषा की मुस्कान नहीं, यह संध्या विहँस रही उपवन में। जीवन के इस शून्य सदन में। उजड़े घर, निर्जन खँडहर में कंचन-थाल लिये… Continue reading विधवा / रामधारी सिंह “दिनकर”
जीवन-संगीत / रामधारी सिंह “दिनकर”
जीवन संगीत कंचन थाल सजा सौरभ से ओ फूलों की रानी! अलसाई-सी चली कहो, करने किसकी अगवानी? वैभव का उन्माद, रूप की यह कैसी नादानी! उषे! भूल जाना न ओस की कारुणामयी कहानी। ज़रा देखना गगन-गर्भ में तारों का छिप जाना; कल जो खिले आज उन फूलों का चुपके मुरझाना। रूप-राशि पर गर्व न करना,… Continue reading जीवन-संगीत / रामधारी सिंह “दिनकर”
उत्तर में / रामधारी सिंह “दिनकर”
उत्तर में तुम कहते, ‘तेरी कविता में कहीं प्रेम का स्थान नहीं; आँखों के आँसू मिलते हैं; अधरों की मुसकान नहीं’। इस उत्तर में सखे, बता क्या फिर मुझको रोना होगा? बहा अश्रुजल पुनः हृदय-घट का संभ्रम खोना होगा? जीवन ही है एक कहानी घृणा और अपमनों की। नीरस मत कहना, समाधि है हृदय भग्न… Continue reading उत्तर में / रामधारी सिंह “दिनकर”
मनुष्य / रामधारी सिंह “दिनकर”
मनुष्य कैसी रचना! कैसा विधान! हम निखिल सृष्टि के रत्न-मुकुट, हम चित्रकार के रुचिर चित्र, विधि के सुन्दरतम स्वप्न, कला की चरम सृष्टि, भावुक, पवित्र। हम कोमल, कान्त प्रकृति-कुमार, हम मानव, हम शोभा-निधान, जानें किस्मत में लिखा हाय, विधि ने क्यों दुख का उपाख्यान? कैसी रचना! कैसा विधान! कलियों को दी मुस्कान मधुर, कुसुमों को… Continue reading मनुष्य / रामधारी सिंह “दिनकर”