लंदन में बिक आया नेता / केदारनाथ अग्रवाल

लंदन में बिक आया नेता, हाथ कटा कर आया । एटली-बेविन-अंग्रेज़ों में, खोया और बिलाया ।। भारत-माँ का पूत-सिपाही, पर घर में भरमाया । अंग्रेज़ी साम्राज्यवाद का, उसने डिनर उड़ाया ।। अर्थनीति में राजनीति में, गहरा गोता खाया । जनवादी भारत का उसने, सब-कुछ वहाँ गवायाँ ।| गोटवव

कंकरीला मैदान / केदारनाथ अग्रवाल

कंकरीला मैदान ज्ञान की तरह जठर-जड़ लम्बा चौड़ा गत वैभव की विकल याद में- बडी दूर तक चला गया है गुमसुम खोया। जहाँ-तहाँ कुछ कुछ दूरी पर, उसके उँपर, पतले से पतले डंठल के नाजुक बिरवे थर-थर हिलते हुए हवा में खड़े हुए बेहद पीड़ित। हर बिरवे पर मुँदरी जैसा एक फूल है अनुपम, मनोहर,… Continue reading कंकरीला मैदान / केदारनाथ अग्रवाल

मैना / केदारनाथ अग्रवाल

गुम्बज के ऊपर बैठी है, कौंसिल घर की मैना । सुंदर सुख की मधुर धूप है, सेंक रही है डैना ।। तापस वेश नहीं है उसका, वह है अब महारानी । त्याग-तपस्या का फल पाकर, जी में बहुत अघानी ।। कहता है केदार सुनो जी ! मैना है निर्द्वंद्व । सत्य-अहिंसा आदर्शों के, गाती है… Continue reading मैना / केदारनाथ अग्रवाल

जीवन से / केदारनाथ अग्रवाल

ऐसे आओ जैसे गिरि के श्रृंग शीश पर रंग रूप का क्रीट लगाये बादल आये, हंस माल माला लहराये और शिला तन- कांति-निकेतन तन बन जाये। तब मेरा मन तुम्हें प्राप्त कर स्वयं तुम्हारी आकांक्षा का बन जायेगा छवि सागर, जिसके तट पर, शंख-सीप-लहरों के मणिधर आयेंगे खेलेंगे मनहर, और हँसेगा दिव्य दिवाकर।

हम और सड़कें / केदारनाथ अग्रवाल

सूर्यास्त मे समा गयीं सूर्योदय की सड़कें, जिन पर चलें हम तमाम दिन सिर और सीना ताने, महाकाश को भी वशवर्ती बनाने, भूमि का दायित्व उत्क्रांति से निभाने, और हम अब रात मे समा गये, स्वप्न की देख-रेख में सुबह की खोयी सड़कों का जी-जान से पता लगाने

ओस की बूंद कहती है / केदारनाथ अग्रवाल

ओस-बूंद कहती है; लिख दूं नव-गुलाब पर मन की बात। कवि कहता है : मैं भी लिख दूं प्रिय शब्दों में मन की बात॥ ओस-बूंद लिख सकी नहीं कुछ नव-गुलाब हो गया मलीन। पर कवि ने लिख दिया ओस से नव-गुलाब पर काव्य नवीन॥

कनबहरे / केदारनाथ अग्रवाल

कोई नहीं सुनता झरी पत्तियों की झिरझिरी न पत्तियों के पिता पेड़ न पेड़ों के मूलाधार पहाड़ न आग का दौड़ता प्रकाश न समय का उड़ता शाश्वत विहंग न सिंधु का अतल जल-ज्वार सब हैं – सब एक दूसरे से अधिक कनबहरे, अपने आप में बंद, ठहरे।

बसंती हवा / केदारनाथ अग्रवाल

हवा हूँ, हवा मैं बसंती हवा हूँ। सुनो बात मेरी – अनोखी हवा हूँ। बड़ी बावली हूँ, बड़ी मस्त्मौला। नहीं कुछ फिकर है, बड़ी ही निडर हूँ। जिधर चाहती हूँ, उधर घूमती हूँ, मुसाफिर अजब हूँ। न घर-बार मेरा, न उद्देश्य मेरा, न इच्छा किसी की, न आशा किसी की, न प्रेमी न दुश्मन, जिधर… Continue reading बसंती हवा / केदारनाथ अग्रवाल