घंटियों की आवाज़ कानों तक पहुंचती है / दुष्यंत कुमार

घंटियों की आवाज़ कानों तक पहुँचती है एक नदी जैसे दहानों तक पहुँचती है अब इसे क्या नाम दें, ये बेल देखो तो कल उगी थी आज शानों तक पहुँचती है खिड़कियां, नाचीज़ गलियों से मुख़ातिब है अब लपट शायद मकानों तक पहुँचती है आशियाने को सजाओ तो समझ लेना, बरक कैसे आशियानों तक पहुँचती… Continue reading घंटियों की आवाज़ कानों तक पहुंचती है / दुष्यंत कुमार

हो गई है पीर पर्वत / दुष्यंत कुमार

हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी शर्त थी लेकिन कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गाँव में हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं… Continue reading हो गई है पीर पर्वत / दुष्यंत कुमार

किसी को क्या पता था इस अदा पर मर मिटेंगे हम / दुष्यंत कुमार

किसी को क्या पता था इस अदा पर मर मिटेंगे हम किसी का हाथ उठ्ठा और अलकों तक चला आया वो बरगश्ता थे कुछ हमसे उन्हें क्योंकर यक़ीं आता चलो अच्छा हुआ एहसास पलकों तक चला आया जो हमको ढूँढने निकला तो फिर वापस नहीं लौटा तसव्वुर ऐसे ग़ैर—आबाद हलकों तक चला आया लगन ऐसी… Continue reading किसी को क्या पता था इस अदा पर मर मिटेंगे हम / दुष्यंत कुमार

आज सडकों पर / दुष्यंत कुमार

आज सड़कों पर लिखे हैं सैकड़ों नारे न देख, पर अन्धेरा देख तू आकाश के तारे न देख । एक दरिया है यहाँ पर दूर तक फैला हुआ, आज अपने बाज़ुओं को देख पतवारें न देख । अब यकीनन ठोस है धरती हक़ीक़त की तरह, यह हक़ीक़त देख लेकिन ख़ौफ़ के मारे न देख ।… Continue reading आज सडकों पर / दुष्यंत कुमार

नज़र-नवाज़ नज़ारा बदल न जाए कहीं / दुष्यंत कुमार

नज़र-नवाज़ नज़ारा बदल न जाए कहीं जरा-सी बात है मुँह से निकल न जाए कहीं वो देखते है तो लगता है नींव हिलती है मेरे बयान को बंदिश निगल न जाए कहीं यों मुझको ख़ुद पे बहुत ऐतबार है लेकिन ये बर्फ आंच के आगे पिघल न जाए कहीं चले हवा तो किवाड़ों को बंद… Continue reading नज़र-नवाज़ नज़ारा बदल न जाए कहीं / दुष्यंत कुमार

सूर्यास्त: एक इम्प्रेशन / दुष्यंत कुमार

सूरज जब किरणों के बीज-रत्न धरती के प्रांगण में बोकर हारा-थका स्वेद-युक्त रक्त-वदन सिन्धु के किनारे निज थकन मिटाने को नए गीत पाने को आया, तब निर्मम उस सिन्धु ने डुबो दिया, ऊपर से लहरों की अँधियाली चादर ली ढाँप और शान्त हो रहा। लज्जा से अरुण हुई तरुण दिशाओं ने आवरण हटाकर निहारा दृश्य… Continue reading सूर्यास्त: एक इम्प्रेशन / दुष्यंत कुमार

अपनी मर्ज़ी से कहाँ अपने सफ़र के हम हैं / निदा फ़ाज़ली

अपनी मर्ज़ी से कहाँ अपने सफ़र के हम हैं रुख़ हवाओं का जिधर का है उधर के हम हैं पहले हर चीज़ थी अपनी मगर अब लगता है अपने ही घर में किसी दूसरे घर के हम हैं वक़्त के साथ है मिट्टी का सफ़र सदियों तक किसको मालूम कहाँ के हैं किधर के हम… Continue reading अपनी मर्ज़ी से कहाँ अपने सफ़र के हम हैं / निदा फ़ाज़ली

अपना ग़म लेके कहीं और न जाया जाये / निदा फ़ाज़ली

अपना ग़म लेके कहीं और न जाया जाये घर में बिखरी हुई चीज़ों को सजाया जाये जिन चिराग़ों को हवाओं का कोई ख़ौफ़ नहीं उन चिराग़ों को हवाओं से बचाया जाये बाग में जाने के आदाब हुआ करते हैं किसी तितली को न फूलों से उड़ाया जाये ख़ुदकुशी करने की हिम्मत नहीं होती सब में… Continue reading अपना ग़म लेके कहीं और न जाया जाये / निदा फ़ाज़ली

अब ख़ुशी है न कोई ग़म रुलाने वाला / निदा फ़ाज़ली

अब खुशी है न कोई ग़म रुलाने वाला हमने अपना लिया हर रंग ज़माने वाला हर बे-चेहरा सी उम्मीद है चेहरा चेहरा जिस तरफ़ देखिए आने को है आने वाला उसको रुखसत तो किया था मुझे मालूम न था सारा घर ले गया घर छोड़ के जाने वाला दूर के चांद को ढूंढ़ो न किसी… Continue reading अब ख़ुशी है न कोई ग़म रुलाने वाला / निदा फ़ाज़ली

कुछ तबीयत ही मिली थी / निदा फ़ाज़ली

कुछ तबीयत ही मिली थी ऐसी चैन से जीने की सूरत ना हुई जिसको चाहा उसे अपना ना सके जो मिला उससे मुहब्बत ना हुई जिससे जब तक मिले दिल ही से मिले दिल जो बदला तो फसाना बदला रस्में दुनिया की निभाने के लिए हमसे रिश्तों की [ithoughts_tooltip_glossary-tooltip content=”व्यापार, व्यवसाय”]तिज़ारत[/ithoughts_tooltip_glossary-tooltip]  ना हुई दूर से… Continue reading कुछ तबीयत ही मिली थी / निदा फ़ाज़ली