स्वाभिमानिनी / अंजना संधीर

स्वाभिमानिनी उसने कहा द्रौपदी शरीर से स्त्री लेकिन मन से पुरूष है इसीलिए पाँच-पाँच पुरुषों के साथ निष्ठापूर्ण निर्वाह किया। नरसंहार में भी विचलित नहीं हुई ख़ून से सींचकर अपने बाल तृप्ति पाई फ़िर भूल गई इस राक्षसी अत्याचार को भी क्या सचमुच? मन से पुरुष स्त्रियों का यही हाल होता है हर जगह अपमानित… Continue reading स्वाभिमानिनी / अंजना संधीर

संवाद चलना चाहिए / अंजना संधीर

“तुम एक ग्लोबल पर्सन हो वापस जा कर बस गई हो पूर्वी देश भारत में फ़िर से लेकिन तुम्हारी विचार धारा अब भी यहाँ बसी है , ऐसे नहीं छोड सकतीं तुम हमें… बहुत याद आती है तुम्हारी…” ढलती हुई शाम के देश से उगते हुए सूरज के देश में , सुबह- सवेरे सात समुन्दरों… Continue reading संवाद चलना चाहिए / अंजना संधीर

वे चाहती हैं लौटना / अंजना संधीर

ये गयाना की साँवली-सलोनी , काले-लम्बे बालों वाली तीखे-तीखे नैन-नक्श, काली-काली आँखों वाली भरी-भरी , गदराई लड़कियाँ अपने पूर्वजों के घर, भारत वापस जाना चाहती हैं। इतने कष्टों के बावजूद, भूली नहीं हैं अपने संस्कार। सुनती हैं हिन्दी फ़िल्मी गाने देखती हैं , हिन्दी फ़िल्में अंग्रेजी सबटाइटिल्स के साथ जाती हैं मन्दिरों में बुलाती हैं… Continue reading वे चाहती हैं लौटना / अंजना संधीर

प्रेम में अंधी लड़की / अंजना संधीर

टैगोर की कविता दे कर उसने चिन्हित किया था शब्दों को कि वो उस रानी का माली बनना चाहता है सख़्त लड़की ने पढ़ा सोचा कि मेरे बाग का माली बनकर वो मेरे लिए क्या-क्या करेगा… खो गई सपनों में लड़की कविता पढ़ते-पढ़ते कि ठाकुर ने कितने रंग बिछाए हैं जीवन में तरंगों के लिए… Continue reading प्रेम में अंधी लड़की / अंजना संधीर

रुको बाबा / अंजना भट्ट

जख़्म अभी हरे हैं अम्मा मत कुरेदो इन्हें पक जाने दो लल्ली के बापू की कच्ची दारू जैसे पक जाया करती है भट्टी में। दाग़ अभी गहरे हैं बाबा मत कुरेदो इन्हें सूख जाने दो रामकली के जूड़े में लगे फूल की तरह। जख़्म अभी गहरे हैं बाबा छिपकली की कटी पूंछ की तरह हो… Continue reading रुको बाबा / अंजना भट्ट

इच्छाओं का घर / अंजना भट्ट

इच्छाओं का घर— कहाँ है? क्या है मेरा मन या मस्तिष्क या फिर मेरी सुप्त चेतना? इच्छाएं हैं भरपूर, जोरदार और कुछ मजबूर. पर किसने दी हैं ये इच्छाएं? क्या पिछले जनमों से चल कर आयीं या शायद फिर प्रभु ने ही हैं मन में समाईं? पर क्यों हैं और क्या हैं ये इच्छाएं? क्या… Continue reading इच्छाओं का घर / अंजना भट्ट

सच / अंजना भट्ट

तुम्हारा सच, मेरा सच बस तुम जानो या मैं जानूं. तो फिर क्यों है इतनी उम्मीदें, बंधन और कड़वाहट? तुम्हारा अकेलापन या मेरा अकेलापन बस तुम जानो या मैं जानूं. तो फिर क्यों है इतना इंतज़ार और बेकरारी एक आकांक्षित मिलन की? तुम्हारे सपनों की हंसीं या उनका रुदन मेरे सपनों की हंसी या उनका… Continue reading सच / अंजना भट्ट

प्रभु की नगरी / अंजना भट्ट

कौन कौन है बसता इस सुनहरी नगरी में कुछ अपने कुछ पराये कुछ कोहरे कुछ साए धुंधले हैं या उजले? रमती रहूँ इस नगरी में या फिर बेघर हो जाऊं? इस नगरी में मेरा कुछ ना अपना ना पराया, सब प्रभु का जाया और फिर उसमें ही समाया मैंने तो कुछ ना बनाया ना बसाया… Continue reading प्रभु की नगरी / अंजना भट्ट

दिल के राज / अंजना भट्ट

मेरे दिल के राज, मेरी जिंदगी का ताना बाना पूरा तो मैने भी ना जाना तो तुम्हें कैसे बताऊँ कि कब हुआ मेरे सपनों के नगरी में तुम्हारा आना जाना. तुम्हारे प्यार का सुकून तुम्हारे प्यार की मस्त मदहोशी मेरे हिस्से की ख़ामोशी, मेरे हिस्से की मदहोशी क्या पूरा पूरा जी पाई? या फिर टुकड़ों… Continue reading दिल के राज / अंजना भट्ट

कहानी / अंजना भट्ट

वो आया मेरा मन कुछ भरमाया इससे पहले कि मै कुछ सोचती अपने मन को टटोलती या कुछ सपने बुनती अचानक पाया कि वो तो था सिर्फ एक साया. सालों बीते जिन्दगी ने एक दिन फिर सामने ला खड़ा किया मैने हैरानी से पलकें झपकाईं तो उसे उसके जीवन साथी के संग पाया, और वो?… Continue reading कहानी / अंजना भट्ट