कनुप्रिया – समापन / धर्मवीर भारती

क्या तुमने उस वेला मुझे बुलाया था कनु ? लो, मैं सब छोड़-छाड़ कर आ गयी ! इसी लिए तब मैं तुममें बूँद की तरह विलीन नहीं हुई थी, इसी लिए मैंने अस्वीकार कर दिया था तुम्हारे गोलोक का कालावधिहीन रास, क्योंकि मुझे फिर आना था ! तुमने मुझे पुकारा था न मैं आ गई… Continue reading कनुप्रिया – समापन / धर्मवीर भारती

कनुप्रिया – समुद्र-स्वप्न / धर्मवीर भारती

जिसकी शेषशय्या पर तुम्हारे साथ युगों-युगों तक क्रीड़ा की है आज उस समुद्र को मैंने स्वप्न में देखा कनु! लहरों के नीले अवगुण्ठन में जहाँ सिन्दूरी गुलाब जैसा सूरज खिलता था वहाँ सैकड़ों निष्फल सीपियाँ छटपटा रही हैं – और तुम मौन हो मैंने देखा कि अगणित विक्षुब्ध विक्रान्त लहरें फेन का शिरस्त्राण पहने सिवार… Continue reading कनुप्रिया – समुद्र-स्वप्न / धर्मवीर भारती

कनुप्रिया – शब्द : अर्थहीन / धर्मवीर भारती

पर इस सार्थकता को तुम मुझे कैसे समझाओगे कनु? शब्द, शब्द, शब्द……. मेरे लिए सब अर्थहीन हैं यदि वे मेरे पास बैठकर मेरे रूखे कुन्तलों में उँगलियाँ उलझाए हुए तुम्हारे काँपते अधरों से नहीं निकलते शब्द, शब्द, शब्द……. कर्म, स्वधर्म, निर्णय, दायित्व…….. मैंने भी गली-गली सुने हैं ये शब्द अर्जुन ने चाहे इनमें कुछ भी… Continue reading कनुप्रिया – शब्द : अर्थहीन / धर्मवीर भारती

कनुप्रिया – एक प्रश्न / धर्मवीर भारती

अच्छा, मेरे महान् कनु, मान लो कि क्षण भर को मैं यह स्वीकार लूँ कि मेरे ये सारे तन्मयता के गहरे क्षण सिर्फ भावावेश थे, सुकोमल कल्पनाएँ थीं रँगे हुए, अर्थहीन, आकर्षक शब्द थे – मान लो कि क्षण भर को मैं यह स्वीकार कर लूँ कि पाप-पुण्य, धर्माधर्म, न्याय-दण्ड क्षमा-शील वाला यह तुम्हारा युद्ध… Continue reading कनुप्रिया – एक प्रश्न / धर्मवीर भारती

कनुप्रिया – अमंगल छाया / धर्मवीर भारती

घाट से आते हुए कदम्ब के नीचे खड़े कनु को ध्यानमग्न देवता समझ, प्रणाम करने जिस राह से तू लौटती थी बावरी आज उस राह से न लौट उजड़े हुए कुंज रौंदी हुई लताएँ आकाश पर छायी हुई धूल क्या तुझे यह नहीं बता रहीं कि आज उस राह से कृष्ण की अठारह अक्षौहिणी सेनाएँ… Continue reading कनुप्रिया – अमंगल छाया / धर्मवीर भारती

कनुप्रिया – उसी आम के नीचे / धर्मवीर भारती

उस तन्मयता में तुम्हारे वक्ष में मुँह छिपा कर लजाते हुए मैं ने जो-जो कहा था पता नहीं उस में कुछ अर्थ था भी या नहीं : आम-मंजरियों से भरी हुई मांग के दर्प में मैं ने समस्त जगत् को अपनी बेसुधी के एक क्षण में लीन करने का जो दावा किया था – पता… Continue reading कनुप्रिया – उसी आम के नीचे / धर्मवीर भारती

कनुप्रिया – सेतु : मैं / धर्मवीर भारती

नीचे की घाटी से ऊपर के शिखरों पर जिस को जाना था वह चला गया – हाय मुझी पर पग रख मेरी बाँहों से इतिहास तुम्हें ले गया! सुनो कनु, सुनो क्या मैं सिर्फ एक सेतु थी तुम्हारे लिए लीलाभूमि और युद्धक्षेत्र के अलंघ्य अन्तराल में! अब इन सूने शिखरों, मृत्यु-घाटियों में बने सोने के… Continue reading कनुप्रिया – सेतु : मैं / धर्मवीर भारती

कनुप्रिया – विप्रलब्धा / धर्मवीर भारती

बुझी हुई राख, टूटे हुए गीत, डूबे हुए चाँद, रीते हुए पात्र, बीते हुए क्षण-सा – – मेरा यह जिस्म कल तक जो जादू था, सूरज था, वेग था तुम्हारे आश्लेष में आज वह जूड़े से गिरे जुए बेले-सा टूटा है, म्लान है दुगुना सुनसान है बीते हुए उतस्व-सा, उठे हुए मेले-सा – मेरा यह… Continue reading कनुप्रिया – विप्रलब्धा / धर्मवीर भारती

कनुप्रिया – केलिसखी / धर्मवीर भारती

आज की रात हर दिशा में अभिसार के संकेत क्यों हैं? हवा के हर झोंके का स्पर्श सारे तन को झनझना क्यों जाता है? और यह क्यों लगता है कि यदि और कोई नहीं तो यह दिगन्त-व्यापी अँधेरा ही मेरे शिथिल अधखुले गुलाब-तन को पी जाने के लिए तत्पर है और ऐसा क्यों भान होने… Continue reading कनुप्रिया – केलिसखी / धर्मवीर भारती

कनुप्रिया – आदिम भय / धर्मवीर भारती

अगर यह निखिल सृष्टि मेरा ही लीलातन है तुम्हारे आस्वादन के लिए- अगर ये उत्तुंग हिमशिखर मेरे ही – रुपहली ढलान वाले गोरे कंधे हैं – जिन पर तुम्हारा गगन-सा चौड़ा और साँवला और तेजस्वी माथा टिकता है अगर यह चाँदनी में हिलोरें लेता हुआ महासागर मेरे ही निरावृत जिस्म का उतार-चढ़ाव है अगर ये… Continue reading कनुप्रिया – आदिम भय / धर्मवीर भारती