कनुप्रिया – आदिम भय / धर्मवीर भारती

अगर यह निखिल सृष्टि
मेरा ही लीलातन है
तुम्हारे आस्वादन के लिए-

अगर ये उत्तुंग हिमशिखर
मेरे ही – रुपहली ढलान वाले
गोरे कंधे हैं – जिन पर तुम्हारा
गगन-सा चौड़ा और साँवला और
तेजस्वी माथा टिकता है

अगर यह चाँदनी में
हिलोरें लेता हुआ महासागर
मेरे ही निरावृत जिस्म का
उतार-चढ़ाव है

अगर ये उमड़ती हुई मेघ-घटाएँ
मेरी ही बल खाती हुई वे अलकें हैं
जिन्हें तुम प्यार से बिखेर कर
अक्सर मेरे पूर्ण-विकसित
चन्दन फूलों को ढँक देते हो

अगर सूर्यास्त वेला में
पच्छिम की ओर झरते हुए ये
अजस्र-प्रवाही झरने
मेरी ही स्वर्ण-वर्णी जंघाएँ हैं

और अगर यह रात मेरी प्रगाढ़ता है
और दिन मेरी हँसी
और फूल मेरे स्पर्श
और हरियाली मेरा आलिंगन

तो यह तो बताओ मेरे लीलाबंधु
कि कभी-कभी “मुझे” भय क्यों लगता है?


अक्सर आकाशगंगा के
सुनसान किनारों पर खड़े हो कर
जब मैंने अथाह शून्य में
अनन्त प्रदीप्त सूर्यों को
कोहरे की गुफाओं में पंख टूटे
जुगनुओं की तरह रेंगते देखा है
तो मैं भयभीत होकर लौट आयी हूँ……

क्यों मेरे लीलाबन्धु
क्या वह आकाशगंगा मेरी माँग नहीं है?
फिर उसके अज्ञात रहस्य
मुझे डराते क्यों हैं?

और अक्सर जब मैंने
चन्द्रलोक के विराट्, अपरिचित, झुलसे
पहाड़ों की गहरी, दुर्लंघ्य घाटियों में
अज्ञात दिशाओं से उड़ कर आने वाले
धुम्रपुंजों को टकराते और
अग्निवर्णी करकापात से
वज्र की चट्टानों को
घायल फूल की तरह बिखरते देखा है
तो मुझे भय क्यों लगा है
और मैं लौट क्यों आयी हूँ मेरे बन्धु!
क्या चन्द्रमा मेरे ही माथे का
सौभाग्य-बिन्दु नहीं है?

और अगर ये सारे रहस्य मेरे हैं
और तुम्हारा संकल्प मैं हूँ
और तुम्हारी इच्छा मैं हूँ
और इस तमाम सृष्टि में मेरे अतिरिक्त
यदि कोई है तो केवल तुम, केवल तुम, केवल तुम,
तो मैं डरती किससे हूँ मेरे प्रिय!

और अगर यह चन्द्रमा मेरी उँगलियों के
पोरों की छाप है
और मेरे इशारों पर घटता और बढ़ता है
और अगर यह आकाशगंगा मेरे ही
केश-विन्यास की शोभा है
और मेरे एक इंगित पर इसके अनन्त
ब्रह्माण्ड अपनी दिशा बदल
सकते हैं-
तो मुझे डर किससे लगता है
मेरे बन्धु!


कहाँ से आता है यह भय
जो मेरे इन हिमशिखरों पर
महासागरों पर
चन्दनवन पर
स्वर्णवर्णी झरनों पर
मेरे उत्फुल्ल लीलातन पर
कोहरे की तरह
फन फैला कर
गुंजलक बाँध कर बैठ गया है।

उद्दाम क्रीड़ा की वेला में
भय का यह जाल किसने फेंका है?
देखो न
इसमें उलझ कर मैं कैसे
शीतल चट्टानों पर निर्वसना जलपरी की तरह
छटपटा रही हूँ
और मेरे भींगे केशों से
सिवार लिपटा है
और मेरी हथेलियों से
समुद्री पुखराज और पन्ने
छिटक गये हैं
और मैं भयभीत हूँ!

सुनो मेरे बन्धु
अगर यह निखिल सृष्टि
मेरा लीलातन है
तुम्हारे आस्वादन के लिए
तो यह जो भयभीत है – वह छायातन
किसका है?
किस लिए है मेरे मित्र?

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