शाम और मज़दूर-4 / अख़्तर यूसुफ़

शाम और मज़दूर बहुत पास-पास बैठे थे मिट्टी की डोंगी में गुड़ की चाय पीते थे महुआ के खेतों से पछुआ सीधी चली आती थी तेज़ कभी होती थी और कभी धीमी ख़ुशबू तेज़ महुआ की गुड़ की चाय जैसे कि बस भड़क-सी दारू दोनों को नशा था झोंपड़ी मज़दूर की महुआ की ख़ुशबू में… Continue reading शाम और मज़दूर-4 / अख़्तर यूसुफ़

शाम और मज़दूर-3 / अख़्तर यूसुफ़

मज़दूर शाम के साथ घर लौट रहा है गलियाँ जल्दी और जल्दी सुनसान हो रही हैं गाँव में कभी बिजली नहीं आती है अकसर गिर जाती है तेल मिट्टी का अब शहर में लोग पीते हैं अधर का पानी मरता जाता है मज़दूर और शाम जाने कब से साथ-साथ जीते हैं और रोज़ झोंपड़ी के… Continue reading शाम और मज़दूर-3 / अख़्तर यूसुफ़

शाम और मज़दूर-2 / अख़्तर यूसुफ़

शाम और मज़दूर दोनों नदी में अपना मुँह धोते हैं दिन भर की धूल गर्द चेहरों पे जमी थी थक गए थे दोनों शाम और मज़दूर सोच रहे थे कुटिया जल्दी से पहुँचेंगे मिलकर दोनों खाएंगे रोटी और गुड़ फिर गुड़ की ही चाय बनाएंगे मिलकर दोनों सोंधी-सोंधी चुसकियाँ लेंगे सोच मज़दूर की गुड़ की… Continue reading शाम और मज़दूर-2 / अख़्तर यूसुफ़

शाम और मज़दूर-1 / अख़्तर यूसुफ़

शाम और मज़दूर खेतों के सब्ज़ सन्नाटे से गुज़र रहे हैं बालियाँ खड़ी हैं शाएँ-शाएँ हलका-सा कहीं-कहीं पे होता है गाँव के लड़के और लड़कियाँ बे लिबास उछल-कूद करते हैं गड्ढों में जैसे छपाक फिर साँप कोई लहराता है और फिर छट-पट गिलहरी की धूप खेतों से गुज़र कर पहाड़ों के ऊपर चढ़ती है थकी-थकी… Continue reading शाम और मज़दूर-1 / अख़्तर यूसुफ़