आलम ही और था / ‘अदा’ ज़ाफ़री

आलम ही और था जो शनासाइयों में था जो दीप था निगाह की परछाइयों में था वो बे-पनाह ख़ौफ़ जो तन्हाइयों में था दिल की तमाम अंजुमन-आराइयों में था इक लम्हा-ए-फ़ुसूँ ने जलाया था जो दिया फिर उम्र भर ख़याल की रानाइयों में था इक ख़्वाब-गूँ सी धूप थी ज़ख़्मों की आँच में इक साए-बाँ… Continue reading आलम ही और था / ‘अदा’ ज़ाफ़री