ताजमहल की छाया में / अज्ञेय

मुझ में यह सामर्थ्य नहीं है मैं कविता कर पाऊँ, या कूँची में रंगों ही का स्वर्ण-वितान बनाऊँ । साधन इतने नहीं कि पत्थर के प्रासाद खड़े कर- तेरा, अपना और प्यार का नाम अमर कर जाऊँ। पर वह क्या कम कवि है जो कविता में तन्मय होवे या रंगों की रंगीनी में कटु जग-जीवन… Continue reading ताजमहल की छाया में / अज्ञेय

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जो कहा नही गया / अज्ञेय

है,अभी कुछ जो कहा नहीं गया । उठी एक किरण, धायी, क्षितिज को नाप गई, सुख की स्मिति कसक भरी,निर्धन की नैन-कोरों में काँप गई, बच्चे ने किलक भरी, माँ की वह नस-नस में व्याप गई। अधूरी हो पर सहज थी अनुभूति : मेरी लाज मुझे साज बन ढाँप गई- फिर मुझ बेसबरे से रहा… Continue reading जो कहा नही गया / अज्ञेय

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मैंने आहुति बन कर देखा / अज्ञेय

मैं कब कहता हूँ जग मेरी दुर्धर गति के अनुकूल बने, मैं कब कहता हूँ जीवन-मरू नंदन-कानन का फूल बने ? काँटा कठोर है, तीखा है, उसमें उसकी मर्यादा है, मैं कब कहता हूँ वह घटकर प्रांतर का ओछा फूल बने ? मैं कब कहता हूँ मुझे युद्ध में कहीं न तीखी चोट मिले ?… Continue reading मैंने आहुति बन कर देखा / अज्ञेय

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चांदनी जी लो / अज्ञेय

शरद चांदनी बरसी अँजुरी भर कर पी लो ऊँघ रहे हैं तारे सिहरी सरसी ओ प्रिय कुमुद ताकते अनझिप क्षण में तुम भी जी लो । सींच रही है ओस हमारे गाने घने कुहासे में झिपते चेहरे पहचाने खम्भों पर बत्तियाँ खड़ी हैं सीठी ठिठक गये हैं मानों पल-छिन आने-जाने उठी ललक हिय उमगा अनकहनी… Continue reading चांदनी जी लो / अज्ञेय

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सत्य तो बहुत मिले / अज्ञेय

खोज़ में जब निकल ही आया सत्य तो बहुत मिले । कुछ नये कुछ पुराने मिले कुछ अपने कुछ बिराने मिले कुछ दिखावे कुछ बहाने मिले कुछ अकड़ू कुछ मुँह-चुराने मिले कुछ घुटे-मँजे सफेदपोश मिले कुछ ईमानदार ख़ानाबदोश मिले । कुछ ने लुभाया कुछ ने डराया कुछ ने परचाया- कुछ ने भरमाया- सत्य तो बहुत… Continue reading सत्य तो बहुत मिले / अज्ञेय

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देखिये न मेरी कारगुज़ारी / अज्ञेय

अब देखिये न मेरी कारगुज़ारी कि मैं मँगनी के घोड़े पर सवारी पर ठाकुर साहब के लिए उन की रियाया से लगान और सेठ साहब के लिए पंसार-हट्टे की हर दुकान से किराया वसूल कर लाया हूँ । थैली वाले को थैली तोड़े वाले को तोड़ा -और घोड़े वाले को घोड़ा सब को सब का… Continue reading देखिये न मेरी कारगुज़ारी / अज्ञेय

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नया कवि : आत्म-स्वीकार / अज्ञेय

किसी का सत्य था, मैंने संदर्भ में जोड़ दिया । कोई मधुकोष काट लाया था, मैंने निचोड़ लिया । किसी की उक्ति में गरिमा थी मैंने उसे थोड़ा-सा संवार दिया, किसी की संवेदना में आग का-सा ताप था मैंने दूर हटते-हटते उसे धिक्कार दिया । कोई हुनरमन्द था: मैंने देखा और कहा, ‘यों!’ थका भारवाही… Continue reading नया कवि : आत्म-स्वीकार / अज्ञेय

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शिशिर ने पहन लिया / अज्ञेय

शिशिर ने पहन लिया वसंत का दुकूल गंध बन उड़ रहा पराग धूल झूल काँटे का किरीट धारे बने देवदूत पीत वसन दमक उठे तिरस्कृत बबूल अरे! ऋतुराज आ गया।

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मेरे देश की आँखें / अज्ञेय

नहीं, ये मेरे देश की आँखें नहीं हैं पुते गालों के ऊपर नकली भवों के नीचे छाया प्यार के छलावे बिछाती मुकुर से उठाई हुई मुस्कान मुस्कुराती ये आँखें – नहीं, ये मेरे देश की नहीं हैं… तनाव से झुर्रियाँ पड़ी कोरों की दरार से शरारे छोड़ती घृणा से सिकुड़ी पुतलियाँ – नहीं, ये मेरे… Continue reading मेरे देश की आँखें / अज्ञेय

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उधार / अज्ञेय

सवेरे उठा तो धूप खिल कर छा गई थी और एक चिड़िया अभी-अभी गा गई थी। मैनें धूप से कहा: मुझे थोड़ी गरमाई दोगी उधार चिड़िया से कहा: थोड़ी मिठास उधार दोगी? मैनें घास की पत्ती से पूछा: तनिक हरियाली दोगी— तिनके की नोक-भर? शंखपुष्पी से पूछा: उजास दोगी— किरण की ओक-भर? मैने हवा से… Continue reading उधार / अज्ञेय

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