मुनिया / अंजना बख्शी

‘मुनिया धीरे बोलो
इधर-उधर मत मटको
चौका-बर्तन जल्दी करो
समेटो सारा घर’

मुनिया चुप थी
समेट लेना चाहती थी वह अपने
बिखरे सपने
अपनी बिखरी बालों की लट
जिसे गूंथ मां ने कर दिया था सुव्यवस्थित
‘अब तुम रस्सी मत कूदना
शुरू होने को है तुम्हारी माहवारी
तुम बड़ी हो गई हो
”मुनिया“
सच मां
क्या मैं तुम्हारे जितनी बड़ी हो गई हूं
क्या अब मेरी भी हो जाएगी शादी

”मेरे जैसे ही मेरी भी मुनिया…?
और उसकी भी यही जिन्दगी…
नहीं मां
मैं बड़ी नहीं होना चाहती“
कहते-कहते टूट गई
मुनिया की नींद

उस वृक्ष की पत्तियां
आज उदास हैं
और उदास हैं उस पर बैठी
वह काली चिड़िया
आज मुनिया नहीं आयी खेलने
अब वह बड़ी हो गई है न
उसका ब्याह होगा
गुड्डे-गुड्डी खेल खिलौनों की दुनिया छोड़
मुनिया हो जायेगी उस वृक्ष की जड़-सी स्तब्ध
हो जायेगी उसकी जिन्दगी
उस काली चिड़िया-सी
जो फुदकना छोड़
बैठी है
उदास
उस वृक्ष की टहनी पर!

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