इन बाट परी सुधि रावरे भूलनि, कैसे उराहनौ दीजिए जू. इक आस तिहारी सों जीजै सदा, घन चातक की गति लीजिए जू. अब तौ सब सीस चढाये लई, जु कछु मन भाई सो कीजिये जू. ‘घनआनन्द’ जीवन -प्रान सुजान, तिहारिये बातनि जीजिये जू.
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निस-द्यौस खरी उर-माँझ अरी / घनानंद
निसि द्यौस खरी उर माँझ अरी छबि रंग भरी मुरि चाहनि की. तकि मोरनि त्यों चख ढोरि रहैं,ढरिगो हिय ढोरनि बाहनि की. छत द्वै कटि पै बट प्रान गए गति हों मति में अवगाहिनी की. घनआँनंद जान लग्यो तब तें जक वागियै मोहि कराहनि की.
मेरो जीव जो मारतु मोहिं तौ / घनानंद
मेरोई जिव जो मारतु मोहिं तौ, प्यारे, कहा तुमसों कहनो है. आँखिनहू यह बानि तजी, कुछ ऐसोइ भोगनि को लहनौ है . आस तिहारियै ही ‘घनआनन्द’, कैसे उदास भयो रहनौ है . जानि के होत इते पै अजान जो, तौ बिन पावक ही दहनौ है.
राति-द्यौस कटक सजे / घनानंद
राति-द्यौस कटक सचे ही रहे, दहै दुख कहा कहौं गति या वियोग बजमर की . लियो घेरि औचक अकेली कै बिचारो जीव, कछु न बसाति यों उपाव बलहारे की . जान प्यारे, लागौ न गुहार तौ जुहार करि, जूझ कै निकसि टेक गहै पनधारे की . हेत-खेत धूरि चूर चूर ह्वै मिलैगी,तब चलैंगी कहानी ‘घनआनन्द’… Continue reading राति-द्यौस कटक सजे / घनानंद
घनआनँद जीवन मूल सुजान की / घनानंद
’घनाआनँद’ जीवन मूल सुजान की , कौंधनि हू न कहूँ दरसैं । सु न जानिये धौं कित छाय रहे, दृग चातक प्रान तपै तरसैं ॥ बिन पावस तो इन्हें थ्यावस हो न, सु क्यों करि ये अब सो परसैं। बदरा बरसै रितु में घिरि कै, नितहीं अँखियाँ उघरी बरसैं ॥
पहिले अपनाय सुजान सनेह सों / घनानंद
पहिले अपनाय सुजान सनेह सों क्यों फिरि तेहिकै तोरियै जू. निरधार अधार है झार मंझार दई, गहि बाँह न बोरिये जू . ‘घनआनन्द’ अपने चातक कों गुन बाँधिकै मोह न छोरियै जू . रसप्याय कै ज्याय,बढाए कै प्यास,बिसास मैं यों बिस धोरियै जू .
तब तौ छबि पीवत जीवत है / घनानंद
तब तौ छबि पीवत जीवत है अब सोचन लोचन जात जरे हित-पोष के तोष सुप्राण पले बिललात महादुख दोष भरे. ‘घनआनन्द’ मीत सुजान बिना सबही सुखसाज समाज टरे तब हार पहाड़ से लागत है अब आनि के बीच पहार परे.
प्रीतम सुजान मेरे हित के / घनानंद
कवित्त प्रीतम सुजान मेरे हित के निधान कहौ कैसे रहै प्रान जौ अनखि अरसायहौ। तुम तौ उदार दीन हीन आनि परयौ द्वार सुनियै पुकार याहि कौ लौं तरसायहौ। चातिक है रावरो अनोखो मोह आवरो सुजान रूप-बावरो, बदन दरसायहौ। बिरह नसाय, दया हिय मैं बसाय, आय हाय ! कब आनँद को घन बरसायहौ।। 12 ।।
क्यों हँसि हेरि हियरा / घनानंद
सवैया क्यों हँसि हेरि हियरा अरू क्यौं हित कै चित चाह बढ़ाई। काहे कौं बालि सुधासने बैननि चैननि मैननि सैन चढ़ाई। सौ सुधि मो हिय मैं घन-आनँद सालति क्यौं हूँ कढ़ै न कढ़ाई। मीत सुजान अनीत की पाटी इते पै न जानियै कौनै पढ़ाई।। 11 ।।
पहिले घन-आनंद सींचि सुजान कहीं बतियाँ / घनानंद
सवैया पहिले घन-आनंद सींचि सुजान कहीं बतियाँ अति प्यार पगी। अब लाय बियोग की लाय बलाय बढ़ाय, बिसास दगानि दगी। अँखियाँ दुखियानि कुबानि परी न कहुँ लगै, कौन घरी सुलगी। मति दौरि थकी, न लहै ठिकठौर, अमोही के मोह मिठामठगी।। 10 ।।