मेरे लोग / गजानन माधव मुक्तिबोध

अ ज़िन्दगी की कोख में जनमा नया इस्पात दिल के ख़ून में रंगकर। आ तुम्हारे शब्द मेरे शब्द मानव-देह धारण कर असंख्यक स्त्री-पुरुष-बालक बने, जग में, भटकते हैं, कहीं जनमे नए इस्पात को पाने। झुलसते जा रहे हैं आग में। या मुंद रहे हैं धूल-धक्कड़ में। किसी की खोज है उनको, किसी नेतृत्व की। इ… Continue reading मेरे लोग / गजानन माधव मुक्तिबोध

मुझे मालूम नहीं / गजानन माधव मुक्तिबोध

मुझे नहीं मालूम सही हूँ या ग़लत हूँ या और कुछ सत्य हूँ कि मात्र मैं निवेदन-सौन्दर्य! धरित्रि व नक्षत्र तारागण रखते हैं निज-निज व्यक्तित्व रखते हैं चुम्बकीय शक्ति, पर स्वयं के अनुसार गुरुत्व-आकर्षण शक्ति का उपयोग करने में असमर्थ। यह नहीं होता है उनसे कि ज़रा घूम-घाम आए नभस् अपार में यन्त्र-बद्ध गतियों का… Continue reading मुझे मालूम नहीं / गजानन माधव मुक्तिबोध

मुझे याद आते हैं / गजानन माधव मुक्तिबोध

आँखों के सामने, दूर… ढँका हुआ कुहरे से कुहरे में से झाँकता-सा दीखता पहाड़… स्याह! अपने मस्तिष्क के पीछे अकेले में गहरे अकेले में ज़िन्दगी के गन्दे न-कहे-सके-जाने-वाले अनुभवों के ढेर का भयंकर विशालाकार प्रतिरूप!! स्याह! देखकर चिहुँकते हैं प्राण, डर जाते हैं। (प्रतिदिन के वास्तविक जीवन की चट्टानों से जूझकर पर्यवसित प्राणों का हुलास… Continue reading मुझे याद आते हैं / गजानन माधव मुक्तिबोध

मुझे क़दम-क़दम पर / गजानन माधव मुक्तिबोध

मुझे क़दम-क़दम पर चौराहे मिलते हैं बाँहे फैलाए!! एक पैर रखता हूँ कि सौ राहें फूटतीं, व मैं उन सब पर से गुज़रना चाहता हूँ; बहुत अच्छे लगते हैं उनके तज़ुर्बे और अपने सपने… सब सच्चे लगते हैं; अजीब-सी अकुलाहट दिल में उभरती है, मैं कुछ गहरे में उतरना चाहता हूँ, जाने क्या मिल जाए!!… Continue reading मुझे क़दम-क़दम पर / गजानन माधव मुक्तिबोध

मुझे पुकारती हुई पुकार / गजानन माधव मुक्तिबोध

मुझे पुकारती हुई पुकार खो गई कहीँ… प्रलम्बिता अंगार रेख-सा खिंचा अपार चर्म वक्ष प्राण का पुकार खो गई कहीं बिखेर अस्थि के समूह जीवनानुभूति की गभीर भूमि में। अपुष्प-पत्र, वक्र-श्याम झाड़-झंखड़ों-घिरे असंख्य ढूह भग्न निश्चयों-रुंधे विचार-स्पप्न-भाव के मुझे दिखे अपूर्त सत्य की क्षुधित अपूर्ण यत्न की तृषित अपूर्त जीवनानुभूति-प्राणमूर्ति की समस्त भग्नता दिखी (कराह… Continue reading मुझे पुकारती हुई पुकार / गजानन माधव मुक्तिबोध

एक भूतपूर्व विद्रोही का आत्म-कथन / गजानन माधव मुक्तिबोध

दुख तुम्हें भी है, दुख मुझे भी। हम एक ढहे हुए मकान के नीचे दबे हैं। चीख़ निकालना भी मुश्किल है, असम्भव…… हिलना भी। भयानक है बड़े-बड़े ढेरों की पहाड़ियों-नीचे दबे रहना और महसूस करते जाना पसली की टूटी हुई हड्डी। भयँकर है! छाती पर वज़नी टीलों को रखे हुए ऊपर के जड़ीभूत दबाव से… Continue reading एक भूतपूर्व विद्रोही का आत्म-कथन / गजानन माधव मुक्तिबोध

डूबता चांद कब डूबेगा / गजानन माधव मुक्तिबोध

अंधियारे मैदान के इन सुनसानों में बिल्ली की, बाघों की आँखों-सी चमक रहीं ये राग-द्वेष, ईर्ष्या, भय, मत्सर की आँखें, हरियातूता की ज़हरीली-नीली-नीली ज्वाला, कुत्सा की आँखों में । ईर्ष्या-रूपी औरत की मूँछ निकल आयी । इस द्वेष-पुरुष के दो हाथों के चार और पंजे निकले । मत्सर को ठस्सेदार तेज़ दो बौद्धिक सींग निकल… Continue reading डूबता चांद कब डूबेगा / गजानन माधव मुक्तिबोध

चांद का मुँह टेढ़ा है (कविता) / गजानन माधव मुक्तिबोध

नगर के बीचों-बीच आधी रात–अंधेरे की काली स्याह शिलाओं से बनी हुई भीतों और अहातों के, काँच-टुकड़े जमे हुए ऊँचे-ऊँचे कन्धों पर चांदनी की फैली हुई सँवलायी झालरें। कारखाना–अहाते के उस पार धूम्र मुख चिमनियों के ऊँचे-ऊँचे उद्गार–चिह्नाकार–मीनार मीनारों के बीचों-बीच चांद का है टेढ़ा मुँह!! भयानक स्याह सन तिरपन का चांद वह !! गगन… Continue reading चांद का मुँह टेढ़ा है (कविता) / गजानन माधव मुक्तिबोध

लकड़ी का रावण / गजानन माधव मुक्तिबोध

दीखता त्रिकोण इस पर्वत-शिखर से अनाम, अरूप और अनाकार असीम एक कुहरा, भस्मीला अन्धकार फैला है कटे-पिटे पहाड़ी प्रसारों पर; लटकती हैं मटमैली ऊँची-ऊँची लहरें मैदानों पर सभी ओर लेकिन उस कुहरे से बहुत दूर ऊपर उठ पर्वतीय ऊर्ध्वमुखी नोक एक मुक्त और समुत्तुंग !! उस शैल-शिखर पर खड़ा हुआ दीखता है एक द्योः पिता… Continue reading लकड़ी का रावण / गजानन माधव मुक्तिबोध

ब्रह्मराक्षस / गजानन माधव मुक्तिबोध

शहर के उस ओर खंडहर की तरफ़ परित्यक्त सूनी बावड़ी के भीतरी ठण्डे अंधेरे में बसी गहराइयाँ जल की… सीढ़ियाँ डूबी अनेकों उस पुराने घिरे पानी में… समझ में आ न सकता हो कि जैसे बात का आधार लेकिन बात गहरी हो। बावड़ी को घेर डालें खूब उलझी हैं, खड़े हैं मौन औदुम्बर। व शाखों… Continue reading ब्रह्मराक्षस / गजानन माधव मुक्तिबोध