न आने की आहट न जाने की टोह मिलती है कब आते हो कब जाते हो इमली का ये पेड़ हवा में हिलता है तो ईंटों की दीवार पे परछाई का छीटा पड़ता है और जज़्ब हो जाता है, जैसे सूखी मिटटी पर कोई पानी का कतरा फेंक गया हो धीरे धीरे आँगन में फिर… Continue reading न आने की आहट / गुलज़ार
Author: poets
खाली कागज़ पे क्या तलाश करते हो? / गुलज़ार
खाली कागज़ पे क्या तलाश करते हो? एक ख़ामोश-सा जवाब तो है। डाक से आया है तो कुछ कहा होगा “कोई वादा नहीं… लेकिन देखें कल वक्त क्या तहरीर करता है!” या कहा हो कि… “खाली हो चुकी हूँ मैं अब तुम्हें देने को बचा क्या है?” सामने रख के देखते हो जब सर पे… Continue reading खाली कागज़ पे क्या तलाश करते हो? / गुलज़ार
जगजीत: एक बौछार था वो… / गुलज़ार
एक बौछार था वो शख्स, बिना बरसे किसी अब्र की सहमी सी नमी से जो भिगो देता था… एक बोछार ही था वो, जो कभी धूप की अफशां भर के दूर तक, सुनते हुए चेहरों पे छिड़क देता था नीम तारीक से हॉल में आंखें चमक उठती थीं सर हिलाता था कभी झूम के टहनी… Continue reading जगजीत: एक बौछार था वो… / गुलज़ार
अभी न पर्दा गिराओ, ठहरो / गुलज़ार
अभी न पर्दा गिराओ, ठहरो, कि दास्ताँ आगे और भी है अभी न पर्दा गिराओ, ठहरो! अभी तो टूटी है कच्ची मिट्टी, अभी तो बस जिस्म ही गिरे हैं अभी तो किरदार ही बुझे हैं अभी सुलगते हैं रूह के ग़म, अभी धड़कते हैं दर्द दिल के अभी तो एहसास जी रहा है यह लौ… Continue reading अभी न पर्दा गिराओ, ठहरो / गुलज़ार
इक इमारत / गुलज़ार
इक इमारत है सराय शायद, जो मेरे सर में बसी है. सीढ़ियाँ चढ़ते-उतरते हुए जूतों की धमक, बजती है सर में कोनों-खुदरों में खड़े लोगों की सरगोशियाँ, सुनता हूँ कभी साज़िशें, पहने हुए काले लबादे सर तक, उड़ती हैं, भूतिया महलों में उड़ा करती हैं चमगादड़ें जैसे इक महल है शायद! साज़ के तार चटख़ते… Continue reading इक इमारत / गुलज़ार
ख़ुदा / गुलज़ार
पूरे का पूरा आकाश घुमा कर बाज़ी देखी मैंने काले घर में सूरज रख के, तुमने शायद सोचा था, मेरे सब मोहरे पिट जायेंगे, मैंने एक चिराग़ जला कर, अपना रस्ता खोल लिया. तुमने एक समन्दर हाथ में ले कर, मुझ पर ठेल दिया। मैंने नूह की कश्ती उसके ऊपर रख दी, काल चला तुमने… Continue reading ख़ुदा / गुलज़ार
देखो, आहिस्ता चलो / गुलज़ार
देखो, आहिस्ता चलो, और भी आहिस्ता ज़रा देखना, सोच-सँभल कर ज़रा पाँव रखना, ज़ोर से बज न उठे पैरों की आवाज़ कहीं. काँच के ख़्वाब हैं बिखरे हुए तन्हाई में, ख़्वाब टूटे न कोई, जाग न जाये देखो, जाग जायेगा कोई ख़्वाब तो मर जाएगा
रात चुपचाप दबे पाँव चली जाती है / गुलज़ार
रात चुपचाप दबे पाँव चली जाती है रात ख़ामोश है रोती नहीं हँसती भी नहीं कांच का नीला सा गुम्बद है, उड़ा जाता है ख़ाली-ख़ाली कोई बजरा सा बहा जाता है चाँद की किरणों में वो रोज़ सा रेशम भी नहीं चाँद की चिकनी डली है कि घुली जाती है और सन्नाटों की इक धूल… Continue reading रात चुपचाप दबे पाँव चली जाती है / गुलज़ार
पूरा दिन / गुलज़ार
मुझे खर्ची में पूरा एक दिन, हर रोज़ मिलता है मगर हर रोज़ कोई छीन लेता है, झपट लेता है, अंटी से कभी खीसे से गिर पड़ता है तो गिरने की आहट भी नहीं होती, खरे दिन को भी खोटा समझ के भूल जाता हूँ मैं गिरेबान से पकड़ कर मांगने वाले भी मिलते हैं… Continue reading पूरा दिन / गुलज़ार
हम को मन की शक्ति देना / गुलज़ार
हम को मन की शक्ति देना, मन विजय करें दूसरो की जय से पहले, ख़ुद को जय करें। भेद भाव अपने दिल से साफ कर सकें दोस्तों से भूल हो तो माफ़ कर सके झूठ से बचे रहें, सच का दम भरें दूसरो की जय से पहले ख़ुद को जय करें हमको मन की शक्ति… Continue reading हम को मन की शक्ति देना / गुलज़ार